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भनेकान्त
वर्ष ६
स्वामीके शब्दों में, सस्य क्या है वह तो केवली और श्रुत- मिथ्या ज्ञान ही माना है। सम्बन्धके अवतरण देनेकी कैवली ही जान सकते है किन्तु यदि सर्वमान्य नियमोंके प्रावश्यकता नहीं, क्योंकि किसी भी ग्रंथमें जहाँ मार्गमा भीतर युक्ति और तर्कके बल पर निर्षय किया जाय तो स्थानों और गुणस्थानोंकी परस्पर योजना की गई। वहां इस प्रकार हो सकता है साम्पादन सम्यक्त्वका काल कम देखा जा सकता है कि सासादन सभ्यत्वके साथ मति-अतसे कम एक समय और अधिकसे अधिक छह मावली प्रमाण अज्ञानका ही सम्बन्ध बतलाया गया है। पर्खशागमके कहा गया है। इन सीमाचोंके भीतर उपशम सम्यक्त्वके जीबढाणकी सत्प्ररूपणाके सूत्र १६ में इस विषयका प्रतिकालमें जिस जीवके जितना समय शेष रहने पर अनन्त नु- पादन किया गया है जो इस प्रकार हैबन्धी उदयसे सासावन गुण प्रकट होता है, उतने ही "मदि-अण्णाशीसुद-अण्णाशी एइंदियप्पहुटि जाव काल तक वह जीव सासादन रह सकता है। अतएव यदि सासणसम्माइट्टि ति।" वह जीव उक्त काम पूर्ण होनेसे पहिले ही पायुक्षयसे इस सूत्रकी टीका धवलाकार ने इस प्रकारसे की है जैसे मरण करता है तो अगले भवमें उतना काल पूरा करेगा उन्हें सासादनमें सज्ञान मानने वाले मतका ध्यान रहा
और इस खिये उतने काल तक अपर्याप्त दशामें उपके हो। लिखते हैं-- सासादान गुणस्थान पाया जायगा। जिस जीव में निकट "मिध्यादृष्टेः द्वेऽप्यज्ञाने भवतां नाम, तत्र मिथ्याकालमें उपशम सम्यक्स्व उत्पन्न करनेकी शक्ति हो उसके स्वोदयस्य सत्वात् । मिथ्यात्वोदयस्यासत्वान्न सासावायु और अनिकाय तथा सूचम, साधारण व लब्ध्यपर्याप्तक दने तयोः सत्त्वमिति १ न, मिथ्यात्वं नाम विपरीताजैसी अत्यन्त अशुभ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होगा, यह भिनिवेशः, सच मिथ्यात्वादनम्तानुबन्धिोत्पते । अनुमान किया जा सकता है। पर जो जीव एक तरफ समस्ति च सासादनस्यानन्तानुबन्ध्युदय इति"। एकेन्द्रिय बादर कायमें और दूसरी तरफ संज्ञी पंचेन्द्रियों में शंका-मतिमज्ञान और श्रुताज्ञान ये दोनों प्रज्ञान उत्पन्न हो सकता है वह विकलेन्द्रिय व असंशियों में क्यों मिथ्याठि जीवके भले ही हों, क्योंकि मिथ्यारष्टि जीवके उत्पन नहीं हो सकता यह कुछ समममें नहीं पाता। इस मिथ्यात्वका उदय विद्यमान रहता है। किन्तु सासादन जीव प्रकार अन्य प्रबलतर प्रमाणके प्रभावमें उपर्युक्त मत-मता- के तो मिथ्यावका उदय रहता ही नहीं है, अतएव सासान्तरों परसे यह मानना अनुचित न होगा कि सासादन दन जीवके उक्त दोनों अज्ञान रूप नहीं होना चाहिये ? सम्यक्त्वी जीव सूक्ष्म, साधारण व लब्ध्य-पर्याप्तक तथा समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्व विपरीतावायुकायिक और अधिकायिक जीवोंमें नहीं उत्सव होता, भिनिवेशका ही नाम है, और यह विपरीताभिनिवेश शेष सबमें हो सकता है, और यदि प्रायु पयके साथ ही मिथ्यात्वये भी उत्पन्न होता है और अनन्सानुबन्धीसे भी उसका सासादन सम्यक्त्वकाल समाप्त हो जाता है तो उस उत्पन्न होता है। और कि सासावन जीवके अनन्तानुके नये भवमे मिथ्यात्व गुणस्थान ही प्रकट होता है, वन्धीका उदय हो ही जाता है, अतएव उसके ज्ञानको अन्यथा जितना सासादनका काल शेष रहा हो उतने काल प्रज्ञान ही कहना चाहिये। तक वह अपर्याप्त अवस्थामें सासादन रहेगा।
किन्तु यह समाधान सर्वथा सन्तोषजनक नहीं हुआ। सासादन कालमें ज्ञान व अज्ञान
यदि विपरीतामिनवेशका ही नाम मिथ्यात्व है और वह भव सासादन सम्यक्रवके सम्बन्धमें मतमेदकी एक विपरीतामिनिवेश सासादन जीवके अनन्तानुबन्धीके उदय और बात पर विचार कर लेना उचित है। ऊपर श्वेताम्बर से हो जाता है तो फिर उस जीवको सम्यक्त्वी. न कहकर भागम भगवती सूत्रसे जो अवतरण दिया गया है उसमें मिथ्यात्वी ही कहना चाहिये । समरूपणा सन १. की सासादन जीवके मति व अवज्ञानको अज्ञान न कह कर टीकामें धवलाकारने कहा है कि "विपरीवाभिनिवेशदूषिसद्ज्ञान माना है। किन्तु श्वेताम्बर कर्मग्रंथों तथा समस्त तस्य तस्य कथं सम्यग्दृष्टित्वमिति चेन्न, भूतपूर्वगत्या दिगम्बर साहित्यमें सासादन सम्यक्त्वी जीवके.ज्ञानको तस्य तद्व्यपदेशोपपत्तेः।"