________________
किरण ३]
जैनजागरणके दादा भाई बाबू सूरजभान
८
अभिन्न मित्रता है। बा. सूरजभान एक ज्वालाकी जिरह और बहस करते रहे हैं और सच यह है कि इन तरह, अपनी तरुणाईकी मदभरी अंगड़ाइयों में, समाज मुकदमोंका कहानी ही, इस नररत्नका जीवनचरित्र है। के अँधेरे आँगनमें उभरे । विराधकी आन्धियाँ उटी, प्रेसका तब श्रा वष्कार न हुअा था और पुस्तकें घहराई, पर वे दीपक न थे, कि बुझ जाते, अज्ञानके __ आजकी तरह सुलभ न थीं। बड़े यत्नसे लाग पुस्तकें दारुण दर्पका दहते, चारों ओर फैल गये। भारी लिखवाते और बड़े प्रयत्नसे उन्हें रखते थे। साम्प्रदालक्कड़क बोझसे दम, छोटी चिनगारी बुझ जाती है, यिक वातावरणकी कशमकशननं इस प्रयत्नमें एक रहपर होलीकी लपट, इन्हीं लक्कड़ोंकी सीढ़ियोंपरसे स्यभरी निगूढ़ताकी सृष्टि करदी थी और इस प्रकार चढ़ आसमानके गले लगती है। पता नहीं, जब वायू पुस्तकें दर्शनीय न होकर, पूजनीय हो चलीं थीं । रत्नों जी जन्मे, किस ज्योतिषीने उनकी भावीका लेम्ब पढ़ा की तरह वे छिपाकर रखने और कभी कभा पर्व-त्यौ
और उस सुकुमार शिशुको यह जलतानामादया-सूर्य हारोंपर समारोहके साथ दिखानकी चीज़ बन गई की तरह वे अन्धेरे में उगे और उसे छिन्न-भिन्नकर थी। आज हम भले ही इसपर एक कहाका मारें, उस आसमानमें आ चमके ! इन सब परिस्थितियोंका हम युगमें पुस्तकों के प्रति यह आत्मीय श्रद्धा न होती, तो अध्ययन न करें, अपने मन में विरोधकी आन्धियोंक हमारे इतिहासकी तरह, हमारा साहित्य भी आज झारोंका चलन ताल पायें, तो देवताकी तरह हमबाबू अप्राप्य होता ! युग युग तक लोगोंने युद्धके रहस्योकी सुरजभान की मूर्तिपूजा भले ही करलें, उनके कार्गेका तरह पुस्तकोंको अपने प्राणों में संजोकर रक्खा है। महत्व नहीं समझ सकते । तब उनके कार्य हमार समयकं प्रवाहकी सीढियों परसे उतरते उतरते उत्सव-गीतोंमें स्वर भले ही भरें, हमारे अन्धेरे अंतर संस्कृत हिन्दी बन गई, तो इसमें क्या आश्चर्य कि का आलोक और टूटे घुटनोंका बल नहीं हो पाते! प्रयत्नकी इस घनतान अन्धश्रद्धाका रूप धारण कर ऐसा हम कब चाहेंगे?
लिया !!! समयने करवट बदली, प्रेसकी सृष्टि हुई, तब आजकी तरह हरेक दफ्तरपर 'नावकेंसी' की युगनं उन पुस्तकों के प्रचार-प्रकाशनकी माँग की, पर पाटी नहीं टँगी थी, वे चाहते तो आसानीस हिप्टी- युगकी माँग हरेक सुनल, तो महापुरुषोंकी पूजाका कलक्टर हो सकते थे, पर नौकरी उन्हें अभीष्ट न थी, अवसर जातियोंको कहाँ मिले ? जैन समाज में प्रायः वे वकील बने और थोड़े ही दिनोंमें देवबंदके सीनि- सबसे पहले बाबू सूरजभानने युगकी यह मॉग सुनी यर वकील होगये । वकीलकी पूजी हैवाचालता और और जैन शास्त्रोंक छपानकी आवाज उठाई ! युगने सफलताकी कसौटी है झूठ पर सचकी सुनहरी पालिश अपने इस तेजस्वी पुत्रकी ओर चावसं देखा, पर करनेकी क्षमता। ओर बाबू सूरजभान एक सफल अन्धश्रद्धाने उनके कार्यको धर्मद्रोह घोषित किया, वकील, मूक साधना जिनकी रुचि और मत्य जिन शास्त्रोंकी निगूढताके पक्षमें युग युगस संचित समाज की आत्माका सम्बल ! काबेमें कुफ हो, न हो, यहाँ की कोमल भावनापर एक हथौड़ासा पड़ा और युद्ध के मयखानेसे एक पैगम्बर जरूर निकला।
लिये समाजको उभारकर वह सामने ले आई। धमें बाबू सूरजभान वकील; अपने मुवक्कलोंके मुक- का सैनिक शैतानका अग्रदूत घोषित किया गया, पर दमे तो उन्होंने थोड़े ही दिन लड़े-वे कचहरियाँ लाँछनोंसे लचा, तो सुधारक क्या उन्हें मार डालने उनके लायक ही न थीं-पर वकील वे जीवन भर की धमकियाँ दी गई, वे मुस्कराये। उनके प्रेसमें बम रहे, आज ७५ वर्षके बुढापेमें भी वे वकील हैं और रात रक्खा गया, तो वे हँसे । धर्मके पुजारी कोधकी घृणा दिन मुकदमे लड़ते हैं। न्यायकी अदालतमें, खोज की से उन्मत्त होरहे थे और 'धर्म' का सिपहसालार हाईकोर्टमें, असत्यके विरुद्ध सत्यके मुकदमे । संस्कृति था शान्त, प्रसन्न, प्रेमपूर्ण ! पृथ्वीपर युगदेवता और की सम्पदा पर कुरीतियों के कब्जेके विरुद्ध वे बराबर आकाशमें भगवान हँस रहे थे । ज्ञान विजयी रहा,