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દ૨
अनेकान्त
[वर्ष ६
खेतीके लिए अच्छे नस्लके बैल जनताको देकर वह लिखा कब काम आयेगा । तुम्हारे बूढ़े ससुर तो जनताके प्रेम और धन दोनोंका उपयोग कर रहा था। दो दिनके मेहमान हैं, उनका क्या भरोसा । वह उच्च शिक्षित न था। उसके दिमागको गणितका फिर भी तो कुछ करना ही पड़ेगा, उनके जीते जी सूक्ष्म विवेचन, फिलास्फीका अगाध पाण्डित्य छून यदि माधव कुछ करने लगे तो उनका अंतिम समय गया था। किन्तु इस साधारणसे व्यवसायमें उसे नयी संतोषसे बीत जाये। नयी बातें सुझती थीं। वह कहा करता यदि देशके लक्ष्मीपर सौ घड़े पानी ढल गया । सास्की क्टूधनी-जमींदार इस प्राचीन व्यवसायको अपनालें तो क्तिये तीरकी तरह उसका हृदय बेधने लगीं उसकी देशके धन और स्वास्थ्य दोनों हीमें आशातीत वृद्धि आँखें छलछला आई। उसने कहा- मैं कब मना हो । उसके पिता प्रारम्भमें तो उसके पागलपनपर करती हूँ अम्मा जी ! कि तुम कोई काम न करो। उदासीन रहे, किन्तु जब मोहनने अपने अटूट परि- गुस्सा न कगे बहू रानी- दुर्गाने कहा-तुम श्रमसे गोशालाके लाभोंको उनके सन्मुख कार्यरूपमें उस पिताके कष्टको जान सकती हो । जिसने जीवन उपस्थित कर दिया तो वह तन, मन, धनस उसकी भर पेट काट कर, मोटा पहिन कर, अपने पुत्रको उन्नतिमें दत्तचित्त हो गए । सारा परिवार मोहनकी सुखी बनान में ही अपने प्राण लगा दिये हों । और गौशाला पर रीझ रहा था। दोनों समय गौशालाकी फिर उसके अन्तिम समयमें समर्थ होकर भी वह संवा, अमृत समान स्वच्छ दूधका भरपेट भोजन और आलसी बना, घर में दबककर पुस्तकों के पन्नेहीपलटता उसके साथ ही धर्म और धनका वहुलाभ ?
रहे और उसका वह पिता पेटकी पीड़ास दर दर भटमाधव मोहन कुछ दिनों तक एक साथ रहे थे। कता फिरे । किन्तु इस अवकाश विहीन कारबारमें फँसे रहने के लक्ष्मीकी आँखें भर आई। रोते २ उसने कहा- कारण मोहनको माधवसे मिलनका सौभाग्य प्राप्त नहीं अम्माजी ! मैं ही अभागिनी हैं, आपकी बातें सुनने हुया था, इस बार जब उसने सुना कि उसका पुराना के पहले मैं मर क्यों न गई। सहपाठी माधव सम्मान सहित दर्शन शाखकी उच्च दुर्गा बोली-नहीं बेटी, तुम्हारा क्या दोष ? यह परीक्षा उत्तीर्ण होकर लौटा है, तबसे उससे मिलने तो सब मेरे ही भाग्यका फल है। की उत्कएठा दिनोदिन तीन हो रही थी। किन्तु जब दुर्गा चली गई, लक्ष्मी बहू खुली छतके ऊपर फैली २ उसने जाना चाहा तब तब कोई न कोई बाधा उप- हुई उज्वल चाँदनी पर दृष्टि गड़ाकर सोचने लगी। स्थित होती ही रही। इस बार जबकि उसके पिताने माधवने आकर देखा, आज बहू रानी चुपचाप गोरखपुर जैसे सुन्दर प्रदेशमें एक शाखा उपस्थित कर अाकाशसे उतरती हुई तरल विधियों में भटक गई हैं। दी थी। माधवक परामर्शसे लाभ उठानेकी मोहनकी उसने जरा पास जाकर नागिन की तरह बल खाई हुई कामना प्रबल होगई थी। किन्तु माधव सरीखे बहुश्रुत बहूरानीको जुल्फोंको मृदु-मंजु कपोलों पर सीधी कर विद्वानको अपने पुराने सहयोगीकी स्मृतिको सुरक्षित दिया। किन्तु बहू रानीके भावोंमें - जरा भी उँचरहनेका अवकाश मिला होगा ? यह संशयपूर्ण नीच न देख माधवने उसके दोनों कोमल कर भी जिज्ञासा उसे डांवाडोल कर देती थी। इसीसे साहस उसकी सीमित उरस्थलीपर सटाकर छोड़ दिये। कर भी वह माधबके पास न जा सका था।
बहूरानी मानों आज थी ही नहीं। माधवकी
मौन साधना दीवार सी ढह पड़ी। खुली हुई छतपर बैठी हुई दुर्गाने कहा-भो उसने कहा-उफ १ इतना मान.............. लक्ष्मी बहू ! जरा इधर सुन देख ! तेरे माधव ही पर बहू रानीको आज यह अच्छा नहीं लग रहा था। तो सारा कुटुम्ब भाँख लगाए बैठा है। उसका पढ़ा उसने कहा-जाने दो-तुम्हें सब समय ऐसे ही