________________
८६
अनेकान्त
[बर्ष ६
वाक्य' तथा परस्पर साक्षेप दो प्रादि वाक्योंके निरपेक्ष बोधक है"-क्रियापदके बोलने पर श्रोताके मस्तिष्कमें समूहसे महावाक्य का निर्गया होता है। परस्पर साचेप "क्या है या किसका अस्तित्व है" यह प्रश्न तब तक दो भादि महावाक्योंका भी निरपेक्ष समूह हुमा करता चकर काटना रहेगा जब तक कि घड़ा, वस, भादमी आदि है लेकिन वह भी महावाक्य शब्दसे ही व्यवहृत किसी संज्ञापदका स्पष्ट उल्लेख न कर दिया जाय अथवा किया जाता है।
श्रोता अनुकूल बाह्य साधनोंके आधार पर वक्ताके अभिप्रेत इन पांच प्रकारके वचनोंमेंसे व्यवहार अर्थात प्रयोगमें अर्थका प्रतिपादक किसी संज्ञापदका खुद आक्षेप न करले। भाने वाले बचन तीन ही हुमा करते हैं पद, वाक्य और यही समस्या केवल धदा, वस्त्र. आदमी भादि संज्ञापदोंके महावाक्य । अत्तर और शब्द प्रयोगाई नहीं होते हैं और बोलने पर क्रियापदके बारेमें रहती है। इस लिये स्वतंत्र
कि वक्ताके हृदयगत पदार्थका बोधक होनेके कारण पदको प्रयोगाई नहीं माना गया है। वाक्य और महावाक्य प्रयोगाई वचन ही परार्थवत माना गया है इस लिये परार्थ- का प्रयोग कहीं स्वतंत्र होता है और कहीं किसी महावाक्य श्रतको भी पद, वाक्य और महावाक्यरूप ही समझना के अवयव होकर भी ये दोनों वाक्य और महावाक्य प्रयुक्त चाहिये, अक्षर और शब्दरूप नहीं। इन पद, वाक्य और किये जाते हैं। जहां ये स्वतंत्र रूपसे अर्थका प्रतिपादन महावाक्यमेंसे पद हमेशा वाक्यका अवयव होकर ही प्रयो- ___ करने में समर्थ होते हैं वहां इनका प्रयोग स्वतंत्र होता है गाईहोता है स्वतंत्र पद कभी भी किसी भी हालतमें और जहाँ ये अर्थका प्रतिपादन न करके केवल अर्थके अंश. प्रयोगाई नहीं होना है। इसका तात्पर्य यह है कि वचन का प्रतिपादन करते हैं वहां ये किसी महावाक्यके अवयव प्रयोग अर्यका प्रतिपादन करनेके लिये किया जाता है लेकिन होकर प्रयुक्त किये जाते हैं। इस कथनसे यह स्पष्ट हो स्वतंत्र पर अर्थका प्रतिपादन न करके अर्थके एक अंशका जाता है कि पद अर्थक अंशका ही प्रतिपादक होता है और ही प्रतिपादन किया करता है और अर्थके एक अंशका प्रति- वाक्य तथा महावाक्य कहीं अर्थका और कहीं अर्थक अंश पावन कभी भी उपयोगी नहीं हो सकता है। यह एक अनु- का भी प्रतिपादन करते हैं। इस प्रकार परार्थश्रुत अपने भवसिद्ध बात भी है कि किसी भी संशापदका प्रयोग प्राप दो भेदोंमें विभक्त हो जाता है--एक अर्थका प्रतिकिया जावे, उसके साथ कमसे कम एक क्रियापदका तथा पादक परार्थश्रत और दसरा अर्थके अंशका प्रतिपादक किसी भी किया पदका प्रयोग किया जावे, उसके साथ कम परार्थश्रृत । इनसे बर्थका प्रतिपादक परार्थश्चत प.क्य और से कम एक संज्ञापदका प्रयोग अनिवार्य होता है। अस्तित्व
महावाक्यके भेदसे दो प्रकारका होता है और पथके अंशका "पदानां परस्सरसापेक्षाणां निरपेक्ष: समुदायो वाक्यम्"। प्रतिपादक परार्थश्रुत पद, वाक्य और महावाक्यके भेदसे
-अष्टसहस्सी पृष्ठ २८५ पंक्ति १ तीन प्रकारका समझना चाहिये।न्हीं दोनोंकी कमसे २"वाक्योच्चयो महावाक्यम्" (साहित्यदर्पण परिच्छेद २ प्रमाण और नय संज्ञा मानी गयी है अर्थात् अर्थका प्रति
लोक १का चरण ३) यहां पर "वाक्यांचयः" पदका पादन काने वाले वाक्य और महावाक्य प्रमाणा-कोटिमें विशेषण "योग्यताकांक्षामत्तियुक्तः” इम लोककी टीकामें और भयंके अंशका प्रतिपादन करनेवाले पद, वाक्य और दिया गया है तब महावाक्यका लक्षण वाक्य इस प्रकार हो महावाक्य नय-कोटि मन्तभूत होते हैं। क्योंकि प्रमाणाको जाता है-"परस्सरसापेक्षाणां वाक्यानां निरपेक्षसमुदायो सकलादेशी अर्थात् अनेक धर्मों-अंशॉकी पिंचभूत वस्तुको महावाक्यम्"।
विषय करने वाला और नयको विकलादेशी' अर्थात् अनेक गोम्मटसार जीवकाँडमें अनज्ञानके जो २० भेद गिनाये हैं ३४५..."प्रमाणमनेकधर्मधर्मिस्वभावं सकलमादिशति".... इनमें अक्षर, पद और संघात अर्थात् वाक्यके बाद जो भेद "नयोधर्ममात्रंबा विकलमादिशनि"(तत्वार्थश्लोकवार्तिकपृष्ठ११८ गिनाये गये हैं उन मबको महावाक्यमें ही अन्तर्भूत समझना पंक्ति १०,११"प्रमागानयरधिगमः" सूत्रकी व्याख्या)समुदायचाहिये। कारण कि हमने मूलमें स्पष्ट किया है कि क्योंके विषयं प्रमाणमवयवविषया नया इति" "सक-लादेश:प्रमासमूहकी तरह महावाक्योंके समूहको भी महावाक्य ही कहते हैं। णाधीनो विकलादेशो नयाधीन इति" -तत्वार्थराज. १-६