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अनेकान्त
[वर्ष ६
(टीका) जो अट्ठाइस मोहनीय कर्मोकी ससा गना विर्मयोऊन द्वारा विनाश हो जाने पर भी उसकी बीजयोनिवेदक सम्यग्दृष्टि संयत है वह जब तक अनन्तानुबन्धी- रूप मिथ्यात्व तो रहता ही है और उसीसे परिणामविशेष चतुष्कका विसंबोजन नहीं कर डालता, तब तक वह कषायों द्वारा अनन्तानुबन्धीका उपचय और उदय होना संभव हो के उपशम करने का उपक्रम नहीं करता, क्यों कि अनन्ता सकता है। यद्यपि यह व्यवस्था सर्वथा संतोषजनक नहीं नुबन्धीकी विसंयोजना किये विना उस जीवके उपशमश्रेणी जंचती, क्यों कि अनन्तानुबन्धीकी योनि मिथ्यात्वके उपचढ़ने योग्य भाव उत्पन्न होना संभव नहीं है। इस लिये शमकाल में ही इन बीजांका उपचय होकर उदयमें पाजाना अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करने में ही वह जीव पहले युक्तिसंगत मा नहीं लगता। किन्तु जब तक अन्य भागमप्रवृत्त होना है। इसी यातको समझानेके लिये अगले सूत्र
प्रमाण उपन्नाथ न हो तब तक इस प्रकार भी उपशान्त का प्रारंभ होता है
कषायकालमसे सीधे मासादन गुणस्थानमें जानेकी उपपत्ति "वह वेदक सम्यग्दृष्टि संयत उपशम श्रेणी चढ़नेमे पूर्व
स्वीकार की जा सकती है। ही अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करता है।" (चूर्णि सूत्र)
सामादन सत्यक्षके संबंधमें अन्य प्रश्न (टीका)"यह सूत्र सुगम है।"
उपशमश्रेयीये उतर कर सामादन गुणस्थानमें पाया इस प्रकार जब यनिवृषभाचार्य अनन्तानबन्धीकी
हुधा जीव यदि मरण करता है तो नियमग देवगतिम ही विसंयोजना मानते हैं और फिर भी उपशान्त कषायम
जाता है, यह तो हम देख ही चुके। अब प्रथमोशम सम्यसासादन गुणस्थानमें जानेका प्रतिपादन करते हैं. तब उनके
क्त्यमे मामादन सम्यक्त्वमें आये हुए जीवके सम्बन्धम और भूतबलि प्राचार्यके बीच मतभेदका कारण स्पष्टत:
प्रश्न उपस्थित होते हैं वे निम्न प्रकार हैं-- समझ नहीं पाता। अतएव यह विषय गवेषणीय है।
१- सासादन सम्यक्त्वी जीव मर कर एकेन्द्रिय, श्वेताम्बर पंचसंग्रहमें कहा गया है कि जब क्षपकश्रेणी
विकलेन्द्रिय व असंज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो सकता है चढ़ने वाला जीव बद्धायु होने के कारण अनन्तानुबन्धीका
या नहीं? चय करके ही ठहर जाता है, तब वह कदाचित मिथ्यादर्शन
२--यदि हो सकता है तो उक्त जीवोंकी अपर्याप्त के उदयसे पुनः अनन्तानुबम्धीका उपचय करने लगता है, अवस्था सामादन सम्यक्त्व पाया जाता है या नहीं? क्योंकि यद्यपि उसके अनन्तानुबन्धीकी मत्ता शेष नहीं रही
इन प्रश्नोंके उत्तर भिन्न भिन्न ग्रंथोंमें बहुत भिन्न प्रकार थी पर मिथ्यावकीतो सत्ता धीही, और मिथ्यात्वमें ही से पाये जाते हैं। इन मतभेदोंका यहां ग्रंथानुसार परिचय अनन्तानबम्धीके बीज सनिहित रहते हैं। अतएव कोई कराया जाता है। कोई जीव परिणामविशेषके द्वारा मिथ्यात्वमेंसे अनन्तानु
सर्वाथसिद्धिका मत बन्धीका उपचय कर उसे उदयमें ले पाते हैं। पर जिस तत्वार्थसूत्रके टीकाकार पूज्यपाद स्वामीने अपनी सर्वार्थजीवने मिथ्यादर्शनका भी तय कर दिया है उसके फिर सिद्धि टीकामें कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले सासाअनन्तानुबन्धीका उदय कदापि नहीं हो सकता, क्यों कि दन सम्यग्दृष्टियोंका स्पर्शन प्रमाण इस प्रकार बतलाया हैउसके पास अनन्तानुबन्धीके बीज ही नहीं रहते-
"लेश्यानुवादेन-कृष्ण-नील-कापोतलेश्यः मिथ्या"इह यदि बद्धायुः क्षपकश्रेणिमारभते, अनन्तानु- दृष्टिभिः सर्वलोकः स्पृष्टः। सामादनसम्यग् भिलाकबन्धिक्षयानन्तरं च मरणसंभवतो व्युपरमते । ततः स्यासंख्येयभागः, पंच, चत्वारो, द्वी चतुर्दशभागा कदाचित् मिथ्यादर्शनोदयतो भूतोऽप्यनन्तानुबन्धिन वा देशोनाः।" उपचिनोति, तद्बीजस्य मिथ्यात्यभ्याविनाशात । क्षीण- अर्थात् --'लेश्याम गंगानुम्मार कृष्ण, मील और कापोमिथ्यादर्शनस्तु नोपचिनोति, बाजाभावात् ।"
तखेश्या वाले मिथ्यारष्टि जीवोंद्वारा समस्त लोक स्पृष्ट किया (प'चसंग्रह, द्वार १, पृ० २५) गया है, तथा सासादन सम्यग्रष्टि जीवों-द्वारा लोकका पसं. इसी प्रकार उपशावायकं भी मनन्तानुबन्धी-का ख्याधी भाग एवं वह भागॉमसे कुछ कम पांच, चार