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किरण २]
सासादन सम्यत्वके सम्बन्ध में शासन-भेद
व दो भाग स्पृष्ट किये गये हैं।"
दुए उन्होंने उनके द्वारा कुछ कम पाठ व बारह राजू किन्तु यहां प्रश्न उठता है कि
प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया जाना माना है। यथा"द्वादश भागा कुता न लभ्यन्ते "
"सासादनसम्यग्दृष्टिभिलकिस्याख्ययभागःमटी अर्थात्-"यदि बठवीं पृथ्वी सासावन नारकी जीव द्वादश वा चतुर्दशभागा देशोनाः।" तिबंग्लोकमे और तिर्यग्लोकके सासावन जीव लोकानके
सर्वार्थसिद्धिकी श्रुतसागरी टीका एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन होते हैं तो उनके द्वारा बारहराव यहाँ सामादन सम्यग्दृष्टियों का जो बारह रान प्रमाण प्रमाण क्षेत्र क्यों नहीं स्पर्श किया जाता ?"
स्पर्शन तंत्र कहा गया है वह तभी सिद्ध हो सकता है जब इसका उत्तर सर्वार्थसिद्धिकार दो प्रकारसे देते हैं। सासादन जीवोंका एकेन्द्रियों में उत्पन होना माना जावे। एक तो यह कि
श्रुतसागरने अपनी टीकामें इसी प्रकार सकी सिद्धिकी है। "तत्रावस्थितलेश्यापेक्षया पन्चैव ।"
यथामर्यात-छठे नरककी लेश्याकी अपेक्षा पांचसे अधिक “षष्ठीतो मध्यलोके पंचरजवः सासादनो माररा प्रमाण वहांसे निकलने वाले सासादन जीवोंका स्पर्शन गान्तिकं करोति, मध्यलोकाच्च लोका बादर पृथिवीक्षेत्र नहीं हो सकता, क्योंकि मध्यलोकसे ऊपर कृष्णलेश्या कायिक-बादराकायिक-चादरवनस्पतिकारिपुत्पसहित गमन नहीं होता।
द्यते इति सप्त रजवः । एवं द्वादशरज्जवो भवन्ति ।" दूसरे प्रकारसे उन्होंने उत्तर दिया है
अर्थात् "चठवीं पृथिषीसे मध्यलोक तक पांच राजू प्रमाण "अथवा, येषां मते मासादन एकेन्द्रियेषु नोत्प- सासादन जीव मारणान्तिक समुद्घात करते हैं और मध्यलोक गते तन्मतापेक्षया द्वादशभागा न दत्ताः।
में लोकाप्रमें बादर पृथिवीकाायक बाबर भकायिक और अर्थात "पक्षास्तरसे, जो पाचार्य सासाबन जीवका बादर बनस्पतिकायिक जीवों में सासावन उत्पाहोते हैं, जिससे एकेन्द्रियों में उत्पन होना नहीं मानते उनके मतकी अपेक्षा सात रा प्रमाण स्पर्शन हुमाम प्रकार पांच और सात द्वादश गजू प्रमाण स्पर्शम पेश नहीं बतलाया।"
राच प्रमाण मिलाकर सासावन सम्यवस्वीका कुल बारह यहां सर्वार्थसिरिकारने यह स्पष्ट कर दिया है कि सा- रान प्रमाण स्पर्शन क्षेत्र हो जाता है।" सावन जीयोंकि मरण पश्चात उत्पत्तिके सम्बन्धमें दो मत अतसागरजीको भी यही उस मतका खयाल था जिस हैं। एक मतके अनुसार सासादन मरकर एकेन्द्रियों में के अनुसार सासादन सम्यक्रवी एकेन्द्रियमि उत्पस नहीं उत्पन हो सकते हैं जिससे उनका स्पर्शन क्षेत्र लोकके होते । इसलिये उन्होंने मागे सासादनोंकी उत्पत्तिसम्बन्धी बारह भाग प्रमाण हो सकता है। किन्तु वूमरे मतके अनु- अपना मत स्पट किया है और उसकी पुष्टिमं एक पुरानी सार सामावन जीव मरकर एकेन्द्रियों में उत्पन ही नहीं गाथा भी पेश की है। यथा-- होते और जिन भाचार्योंके वचनोंके माधारपर सर्वार्थसिद्धि- सामादनसम्यग्दृष्टिहि वायुकायिक तेजःकाकारने उक्त स्पर्शन क्षेत्र बतलाया है, उन्हें वे इमी दूसरे यिकेषु नरकंषु सर्यसूचमकायिकंषु चतुःस्थानकेपु नोमत पक्षपातीअनुमान करते है। सर्वार्थ सिद्धिकारके था- पद्यते इनि नियमः। तथा चोक्तम । गाथा-- धारभूत वे भाचार्य कौन है व उनके कथनोंसे सासादन जिनठाणच उबकं तेउबाऊय मारय-सुहमं च। जीवोंकी उत्पत्ति-म्यवस्था केसी निकलती है यह हम भागे अण्णात्थ मब्बठाणे उवजद सासणो जीबो ।” चलकर देखेंगे । पर पूर्वोक प्रकाशपरसे चाहे स्वयं सर्वार्थ- "अर्थात "सासावन सम्पहार वायुकायिक, तेजकासिधिकारका मत में स्पष्टत: समममें न भावे, किन्तु ग्रंथ थिकनरक और समस्त सूचमकायिकान चार जीवस्थानों के अन्य अंशों परसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें स्वयं में नहीं उत्पन्न होता। कहा भी है। गाथा-सेज, वायु, सासादन जीवोका एकेम्बिों में उत्पन होना स्वीकार है। नरक और सूचम, इन चार स्थानोंको छोड़कर अन्यत्र सभी सामान्यसे सासादन सम्बटियोंका स्पर्शन क्षेत्र बतखाते स्थान में सासादन जीव उत्पन होता है।" स नियमके