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किरण २]
वीर-शामनकी उत्पत्तिका समय और स्थान
कि पंचशैलपुरको, जो कि गुणनाम था, 'राजगई' नगरके अभिजिस्म पढमजोए जत्थ जुगादी मुणेयब्वा ॥" नामसे भी उल्लेविन किया है. उसे मगधमंडलका तिलक भाषण-कृष्ण-प्रतिपदाको तीर्थोत्पत्ति होनेका यह स्पष्ट बतलाया और तीर्थोत्पत्तिके समय चेलना-सहिन महामंड- अर्थ है कि वैशाग्वसुदि १०मीको केबलशान हो जाने पर भी लोकराजा श्रेणिकसे उपभुक्त-उनके द्वारा शासित--प्रकट श्राषाढा पूर्णिमा तक अर्थात् ६६ दिन तक भ. महावीरकी किया है। यथा:
दिपध्वनि-वाणी नहीं खिरी और इससे उनके प्रवचन कत्थ कहियं सेणियराये सचेलणे महामंड- (शासन)तीर्थकी उत्पत्ति पहले नहीं हो सकी-इन ६६ लीए सयलवसुहामंडलं भंजते मगह-मंडलतिलप-राय- दिनों में वे भी जिनसेनाचार्य के कथनानुसार मौनसे विहार गिहण्यर-णेरयि-दीसहिट्टिय-विउलगिरि- पव्वए करते रहे हैं। ६६ दिन तक दिव्यनानिके प्रवृत्त न होनेका सिवचारणसेविएवार हगण वेट्रिएगा कहियं।" कारण बतलाते हुए धवल और जयधवल दोनों ग्रंथोमें एक
इसके बाद 'उक्तंच' स्पसे जो गाथाएँ दी है और जो रोचक शंका-समाधान दिया गया है, जो इस प्रकार हैधवल प्रन्थमें भी अन्यत्र पाई जाती हैं उनमंसे शुरूकी डेढ़ "छासठदिवसाषणयणं केवलकारतम्मि किमट्ट गाथा, जिसके अनन्तरकी दो गाथाएँ पंचपर्वताक नाम, कीरदेवलणाणे समुप्पण्णे वि तत्थ तित्थाएबश्राकार और दिशादिके निर्देशको लिए हुए हैं, इस प्रकार है- वनीटोरियम
वत्तीदो। दिव्यज्झीए मिटुं तद्वाऽपसी? गणिया'पंचसेलपुरे रम्मे विउले पव्वदुत्तमे ।
भाषादो । सोहम्मिदेण सक्खणे चेव गणिंदो किरणणाणादुमसमाइण्णे देवदाणवाददे ॥१॥
धोइदो ? काललद्धीए विणा असहायस्स देविंदस्स महाबारेणत्थो कहियो भयिय-लोअस्स।
तद्धोयणसत्तीए अभावादो। सगपादमूलम्मि परिवक्षेत्रप्ररूपणा-सम्बन्धी इस कथनके द्वारा यह स्पष्ट किया एणमहव्वयं मोत्तू अण्णादिसिय दिव्यज्भुणी गया है कि महावीरके शासन-तीर्थकी उत्पत्ति राजगहका किरण पयट्टदे? साहावियादो, ण च सहाबो परपछानै ति दिशामें स्थित विपुलाचल पर्वतपर हुई है, जो शिपयोगालोमaratी " उस समय राजा श्रेणिकके राज्यमें था।
'शंका-केवल कालमेंसे ६६ दिनोंका घटाना किस अब काल-प्ररूणाको लजिये, इस प्ररूपणा में निम्न
लिये किया जाता है ? तोन गाथाश्रको एक साथ देकर धवलसिद्धान्त में बतलाया
समाधान-इसलिये कि, केवलज्ञानके समुत्पन्न होने है कि-'इस भरनक्षेत्रके अवपिणं-कल्प-सम्बन्धी चतुर्थ
पर भी उस समय तीर्थकी उत्पत्ति नहीं हुई। काल के पिछले भाग में जब कुछ कम चौतीस वर्ष वशिष्ठ
शंका-दिव्यध्वनिकी उस समय प्रवृत्ति क्यों नहीं हुई? ६ थे तब वर्षके प्रथम मास, प्रथम पक्ष और प्रथम दिनमें
समाधान---गणी-द्रका प्रभाव होनेसे नहीं हुई। श्रावणकृष्णप्रतिपदाको पूर्वाह के ममय अभिजित् नक्षत्रम म. महावीर के तीर्थकी उत्पत्ति हुई थी। साथ ही यह भी
शंका-सौधर्मेन्द्रने उसी समय गणीन्द्रकी खोज म्यो बतलाया है कि श्रावण - कृष्ण - प्रतिपदाको रुद्र-महर्तमें नहा की? सूर्योदयके समय अभिजित् नक्षत्रका प्रथम योग होनेपर जहाँ
समाधान-काललब्धिके विना देवेन्द्र असहाय था
और उसमें उस खोजकी शक्ति का अभाव था। युगकी आदि कही गई है उसी समय इस नार्थोत्पत्तिको जानना चाहिये :--
शंका-अपने पादमूलमें जिसने महावत ग्रहण किया "इमिस्सेऽवसप्पणीए चमत्थसमयस्म पच्छिमे भाए। उसे छोड़कर अन्यको उद्देश्य करके दिव्यध्वनि क्यों चात्तीसवासससे किंचिबिससूणए मंते ॥शा
प्रवृत्त नहीं होती? वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले। समाधान-ऐसा स्वभाव है, और स्वभाव पर-पर्यपाडिपदपुम्वदिवसे तित्थुपपत्ती दुअभिजिम्मि ॥२॥ नुयोगके योग्य नहीं होता, अन्यथा कोई व्यवस्था नहीं सावणबहुलपडिबदे रुद्दमुहत्ते सुहोदए रविणो।