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अनेकान्त
[वर्ष ६
म.महावीग्के संध्याममय ही प्रस्थान करके रातोंरात मध्यमा प्रत्यक्षीकृतविश्वार्थ कृतदोषत्रयक्षयं । नगरीके उद्यान में पहुँचने आदिकी बात कुछ जीको लगती जिनेन्द्र गोतमोपृच्छत्तीर्थार्थ पापनाशनम् ।। ८ ।। हुई मालूम नहीं होती।
स दिव्यचनिना विश्वसंशयच्छेदिना जिनः। ' प्रस्तुत इसके, दिगम्बर साहित्य परसे यह स्पन जाना। दुंदुभि ध्वनिधीरेण योजनान्तरयायिना ॥१०॥ जाता है कि ऋजुकूला-तटवाले प्रथम समवसरणमें वीर श्रावणस्यासिते पक्षे नत्रेऽभिजिति प्रभुः। भगवानकी वाणी ही नहीं खिरी-उनका उपदेश ही नहीं प्रतिपर्धाह पूर्वाण्हे शासनार्थमुदाहरत् ॥११॥ होमका, और उसका कारण मनुष्योंकी उपस्थितिका अभाव
-हरिवंशपुराण, द्वि० सर्ग नहीं था किन्तु उस गणीन्द्रका अभाव था जो भगवानके इस विषयमें धवल और जयधवल नामके सिद्धान्तमुम्बसे निकले हुए बीजपदोंकी अपने ऋद्धिबलसे ठीक व्या- ग्रन्यों में, श्रीवर्द्धमान महावीरके अर्थकर्तृत्वकी-तीर्थोत्पादन ख्या कर सके अथवा उनके श्राशयको लेकर वीर-प्ररूपित की-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूपसे प्ररूपणा करते हुए, अर्थको ठीक रूपमें जनताको समझा सके और या यूँ कहिये प्राचीन गाथासोंके आधार पर जो विशद कथन किया गया कि जनताके लिये उपयोगी ऐस द्वादशाङ्ग श्रुतरूपमें वीर- है वह अपना खास महत्व रखता है। द्रव्यप्ररूग्णामें तीर्थोबाणीको गूंथ सके। ऐसे गणीन्द्रका उस समय तक योग त्पत्तिके समय महावीर के शरीरका 'केरिसं महाधीसरीरं' नहीं भिड़ा था, और इस लिये वीरजिनेन्द्रने फिरसे मौन- इत्यादिरूपसे वर्णन करते हुए उसे समचतु:संस्थानादि पूर्नक विहार किया, जो ६६ दिन तक जारी रहा और जिस गुणोसे विशिष्ट, सकल दोषोंसे रहित और राग-द्वेष-मोहके की समासिके साथ माथ वे गजगृह पहुँच गये, जहाँ विपु- प्रभावका सूचक बतलाया है। क्षेत्ररूपणाम ‘ातत्युप्पत्तिलाचल पर्वत पर उनका वा समवसरण रचा गया जिसमें
कम्हि खेत्ते' इत्यादिरूपसे नीर्थोत्पत्तिके क्षेत्रका निरूपण और इन्द्रभूति गोतम)श्रादि विद्वानोंकी दीक्षाके अनन्तर भावण- उसमें समवसरण तथा उसके स्थानादिका निर्देश करते हुए कृष्णा-प्रतिपदाको पूरहके समय अभिजित नक्षत्र में वीर- जो विस्तृत वर्णन दिया है उसका कुछ अंश इस प्रकार हैभगवानकी सर्वप्रथम दिव्यवाणं। विरी और उनके शासन
___........"गयणट्टियछत्ततयेण वढमाण-तिहुवणाहितीर्थको उत्पत्ति हुई। जैसाकि श्री जिनसेनाचार्यके निम्न वइत्तचिंधएग्ण सुसोहियण पंचसेलउर-रइदिमावाक्योंसे प्रकट है
विसय-अइविउल-विउलगिरिमत्थयत्थए गंगोहोब्ब । षट्षष्ठिदिवसान भूयो मौनेन विहरन विभुः। चहि सुरविरइयचारे हियविसमाग. देवविज्जाहरमणुभाजगाम जगत्ख्यातं जिनो राजगृह पुरं ॥६शा वजणाण मोहण समवसरणमंगल
वजणारण मोहण समवसरणमंन्ले x x x x होदु मारोह गिरि तत्र विपुलं विपुलश्रियं । णामदिह जिणदल्बमहिमाणं देविदसरूवावगच्छंत 'प्रबोधार्य स लोकानां भानुमानुदयं यथा ॥६॥ जीवाण मिदं जिसवण्णुत्तलिगं चामरछण्ट्ठदिततः प्रबुद्धवृत्तांतरापर्ताहरितस्ततः।
माचिसम्मि दिव्यामोयगंधसुरमारायमर्माणागि बहजगत्सुरासुरान जिनेन्द्रस्य गुगौरिव ॥ ६ ॥ फुडियम्मि गंधडिप्पासार्याम्म ट्रियसिहासणारूढेण xxx x
बड़माणभडारएगा तित्थुप्पाइदं । खेत्तप्परूवणा।" इन्द्राऽग्निवायुभूत्याख्या कौण्डिन्याखयाश्च पण्डिताः।
इसमें अनेक विशेषणोंके साथ यह स्पष्ट बतलाया है इन्दनोदयनाऽऽयाताः समवस्थानमहंतः ॥ ६८॥ कि, पंचशैलपुर ('राजा' नगर)की नेति दिशामें जो प्रत्येक.सहिताः सर्वे शिष्याणां पंचभिः शतैः।
विपुलाचल पर्वत है उसके मस्तक पर होने वाले तत्कालीन स्याक्ताम्बरादिसम्बन्धा मंयम प्रतिपेदिरे ॥६६॥ समवसरगा मंडलकी गंधकुटीमें गगन-स्थित छत्रपसे युक्त •"बीजमदगिन्नीणस्थपरूवणं दुवालसंगाणं कारो गणहर एवं सिंहासनारूढ हुए वर्द्धमान भट्टारक (भ. महावीर) ने भडारयो गंयकत्तारयो ति अम्भुगमा दो। बीजपदाणं तीर्थकी उत्पत्तिकी-अपना शासनचक्र प्रवर्तित किया।' स्वायत्रो ति बुलं दोदि।" -धवल, वेयणावंड ... जाधवल अन्यमें इतना विशेष और भी पाया जाता है