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किरण २]
सापादन सम्यक्त्वके सम्बन्धमे शासन-भेद
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हेट्ठा ओयारिय आसाणं गदस्म अंनोमुहत्तंतरं किरण दोनोंका प्रभाव होनेसे अकस्मात् उनका उदयमें माना परूविदं"?
और जीवको सासादन बना देना संभव नहीं जंचता। अर्थात--सासादनके पश्चात् मिथ्यारष्टि हुए जीवको अतएव अनुमान होता है कि भूतबखि भाचार्य भानन्तानुसंयम ग्रहमा कराकर व दर्शनत्रयका उपशमन कराकर पुनः बन्धीका विसंयोजन स्वीकार करनेके कारण उपशान्त कवाय चारित्रमोहको उपशमाकर नीचे उतर मासादन गुणस्थान से सासादनमें जाना नहीं मानते और संभवत: यतिषमामें जाने पर सासादन सम्यक्त्वका अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अन्तर चार्य अनन्तानुबन्धीका उपशम मान कर उपशातसे मासाभीतोसका सोक्यों नहीं प्ररूपण किया? इसका दनमें गमन संभव बनाते हैं। किन्तु जब हम पतिवृषभाउन्होने यो समाधान किया है कि--
चार्यके चर्णिसूत्रोंको देखते हैं तो वे श्रेणी चढ़ने के समय प, उवसमपेढीदो आदिएरगाणं सामणगमणा- अनन्तानुबन्धीका उपशम नहीं किन्तु विसंयोजन ही स्वीभावादो। तं पि कुदो रणधदे ? एदम्हादो चेव भूद- कार करते है, जैसा कि जयधवलाकारकी उत्थानिका व बलीवयणादो।"
टीकासहित निम्न चर्णिसूत्रसे स्पष्ट हैपर्यात--जस तरह मामादनका अन्तर्मुहतं प्रमाण
"तत्थ ताबमणताणुबंधिविसंजोयणा परवेयव्वा, अंतर नहीं स्वीकार किया जा सकता, क्योंकि उपशमश्रेणीसे अविसंजोइदाणताणुबंधीचमकस्स वेदयसम्माहिस्स उतरे हुए जीव सामानभावको प्राप्त ही नहीं होने । यदि कसायोवसामयाणिबंधणदसणमोहोवसामणादिकिकहा जाय कि यह कैसे जाना जाता है तो उसका उत्तर रियासपीभवाटोतिनो विजोग है कि प्रस्तुत सूत्र ही तो भूतपक्षी प्राचार्यका वह वचन है
पुत्वं परूवेमारणो तदत्रसरकाणमुत्तरमुत्तं भणइजिससे उपशम श्रेणीसे उत्तरा हुमा जीव सामादन नहीं वेदयसम्भाइट्ठी अणंताणुबंधी अविर्मजोपदूण हो सकता। यहां प्रश्न यह होता है कि इस मतभेदका कमाये उवसामेदं णो उहदि । (चू० सूत्र) कारण क्या है? यही मतभेद वेताम्बर कार्मिक ग्रंथों में भी जो अट्ठावीमसंतकम्मिश्रो वेदयसम्माइट्टी संजदो पाया जाता है। कर्मप्रकृतिके जपशमना अधिकारकी गाथा मोजाव अणंताणुबंधिचकं गा विसंजोद ताव १२ तथा पंचसंग्रहके उपशमना अधिकारकी गाथा १३ में कसाए उवसामेदं यो उवक्कमेदि । कुदो? तेसिमविभी उपशमश्रेणीसे गिर कर मासादन गुणस्थानमें मानेका संजोयगणाए तम्म उवमममेडिचहणपायोगाभावाउल्लेख पाया जाता है। उन गाथाओंके टीकाकार मनयगिरि संभवादो। तदो अणंताणुधिषिमंजोयणार चेव व यशोविजय उपाध्याय दोनोंने यह स्पष्टीकरण किया है पढममेसो पयदि त्ति जागगावगाहमुत्तरमृत्तारंभोकि जिन भाचार्योंके मतसे अनन्तानुबन्धीकी उपशमना सो ताव पुष्वमेव अणंताणुबंधी विसंजोएदि। होती है उनके मतसे ही श्रेणीपतित जीव सासादन हो सुगमं ।" (चू० सू०) सकता है-'येषांमतेनानन्तानुबन्धिनामुपशमनाभवति अर्थात्-"ब यहाँ अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना तेषां मतेन कश्चित् सासादनभावमपि गच्छति ।" यह बतलाने योग्य है, क्योंकि, जिस वेदकसम्बग्रष्टि जीवने मत बहुत युक्ति-संगत प्रतीत होता है, क्यों कि अब अनन्ता- भनन्तानुबन्धी तुफकी विसंयोजना नहीं की उसकी कथानुबन्धी कधार्योको उपशमकालमें उपशान्त माना है, तब योग्शामनाके निमित्तभूत दर्शनमोहकी उपशामना भादि उनका परिणामोंके निमित्तसे अनुपशाम्त होकर उदयमें कियायोंमें प्रवृत्ति होना असंभव स लिये उन अनमाजाना और जीवको सासादन बना देना संभव हो सकता तानुबन्धी कषायोंके विसंबोजनको ही पहले बतलाते हुए है। और जहां दर्शनमोहका उपशम होनेसे पूर्व समस्त (भाचार्य यतिवृषम) उसके अवसरकी प्राप्तिके लिये भगवा अनन्तानुबन्धी कार्यों का विसंयोजन अर्थात् अपनी जातीय सूत्र कहते है-वेदक सम्यग्दष्टि जीव अनन्तानुबन्धीका पर-प्रकृतियों में संक्रमण द्वारा विनाश माना गया है, वहाँ विसंयोजन किये विना कपागेको उपशान्य करने के लिये उपशान्य करायकालमें अमन्नानुबन्धीके सत्व और वन्य उचत नहीं होग। (चषि सूत्र)