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अनेकान्त
[वर्ष ६
अब तक देखे तीनों कोनोंमें गहरे रंग है, दताके संस्थाओंके वे सभापति और संचालक रहे और और अकम्पके, पर चौथे कोने में बड़े 'लाइट कलर'. समाजका जो कार्य कोई न कर सके, उमके करनेकी है-हल्के हल्के झिलमिल और सुकुमार ।
क्षमता उनमें मानी जाने लगी। धर्मके प्रति आस्था जीवनके साथ लिये ही जैसे समाजकी यह पूजा पाकर भी, उनमें पूजाकी वे जन्मे थे।कालेजमें भी स्वाध्याय-पूजन करते और प्यास न जगी। उन्होंने जीवनभर काम किया, यशके धर्म कायों में अनुरक्त रहते । कालेजमें उन्हें एक साथी लिये नहीं, यह उनका स्वभाव था, बिना काम किये मिले ला० धूमसिंह । ऐसे साथी कि अपना परिवार वे रह नहीं सकते थे। उनकी मनोवृत्तिको समझनेके छोड़कर मृत्युके दिन तक उन्हीं के साथ रहे । ला० लिये यह आवश्यक है कि हम यह देखें कि सरकारी जम्वप्रेसादके परिवारमें इसपर ऐतराज़ हुआ, तो अधिकारियों के साथ उनका सम्पर्क कैसा रहा? बोले-मैं यह स्टेट छोड़ सकता हूँ, धूमसिंहको नहीं उनके नामके साथ, अपने समयके एक प्रतापी छोड़ सकता । और वाकई जीवनभर दोनोंने एक पुरुष होकर भी, कोई सरकारी उपाधि नहीं है। इस दूसरेको नहीं छोड़ा।
उपाधिके लिये खुशामद और चापलूमी की जिन दत्तक पुत्रोंका सम्बन्ध प्रायः अपने जन्म-परिवार व्याधियों की अनिवार्यता है, वे उनसे मुक्त थे। उनके के साथ नहीं रहता, पर वे बराबर सम्पर्क में रहे और जीवनका एक कम था-भाज तो सरकारी अधिकारी सेवा करते चले। अपने भाईकी बीमारीमें १००) रु० ही अपने मिलनेका समय नियंत करते हैं, पर उन्होंने रोजपर वर्षों तक एक विशेषज्ञको रखकर, जितना स्वयं ही सायंकाल ५ बजेका समय इस कार्यके लिए खर्च उन्होंने किया, उसका योग देखकर आँखें खुली नियतकर रक्खा था। जिलेका कलकर यदि मिलने ही रह जाती हैं!
माता, तो उसे नियमकी पाबन्द करनी पड़ती, अन्यथा १९२१ में, अपनी पत्नीके जीवनकाल में ही आपने वह प्रतीक्षाका रस लेनके लिये बाध्य था। ब्रह्मचयका व्रत लेलिया था और वैराग्यभावसे रहने - लखनऊ दरबारमें गवर्नरका निमन्त्रण उन्हें मिला। लगे थे। अप्रल १९२३ में वे देहलीकी बिम्बप्रतिष्टामें उन्होंने यह कहकर उसे अस्वीकृत कर दिया कि मैं तो गये और वहां उन्होंने यावन्मात्र बनस्पतिके आहारका ५ बजे ही मिल सकता हूँ, विवश, गवर्नर महोदयको त्यागकर दिया। जून १९२३ में उन्होंने अपने श्रीमन्दिर समयकी ढील देनी पड़ी।आजके अधिकांश धनियोंका की वेदी प्रतिष्ठा कराई और इसके बाद तो वे एक दम नियम तो दारोगाजीकी पुकारपर ही दम तोड़ देता उदासीन भाव-सुख दुखमें समता लिये रहने लगे। है। कई बार उन्हें आनरेरी मैजिस्टेट बनानेका,
प्रारम्भसे ही उनकी रुचि गम्भीर विषयोंके प्रस्ताव माया, पर उन्होंने कहा-मुझे अवकाश ही अध्ययनमें थी-कालेजमें. बी०ए० में पढ़ते समय, नहीं है। यह उनके अन्तरका एक और चित्र, साफ लाँजिक, फिलासफी और संस्कृत साहित्य उनके प्रिय और गहरा। विषय थे। अपने समयके श्रेष्ठ जेन विद्वान श्री पन्ना- १० अगस्त १९२३ को वे यह दुनिया छोड़ चले। लालजी न्यादिवाकर सदैव उनके साथ रहे और मृत्युका निमन्त्र मानने से कुछ ही मिनट पहले उन्होंने लालाजीका अन्तिम समय तो पूर्णतया उनके साथ नये वस्त्र बदले और भूमिपर भाने की इच्छा जताई। शाखप में ही व्यतीत हुआ।
उन्हें गोदमें उठाया गया और नीचे उनका शव रखा उनकी तेजस्विता, सरलता और धर्मनिष्ठाके गया जीवन और मृत्युके बीच कितना संक्षिप्त अन्तर । कारण समाजका मस्तक उनके सामने झुक गया और लाजम्यूप्रसाद, एक पुरुष, संघर्ष और शान्ति दोनोंमें समाजने न सिर्फ उन्हें 'तीर्थभक्त-शिरोमणि' की एक रस ! वेबाज नहीं है, किन्तु उनकी भावना भाज उपाधि दी, अपना भी शिरोमणि माना । भनेक भी जीवित है।