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अनेकान्त
[ वर्षे
माचार-विचारमें बहुतोंसे छोटा है और बहुत से बढ़ा है। शेषका उक्त पदके माश्रयसे परिवर्जन (गौणीकरण) हो जिनदासजीको जिसके साथ जिस विषय अथवा जिन जाता है।... विषयों में उसकी तुलना करनी थी उस तुलनामें वह छोटा अध्यापक वीरभद्रजीकी व्याख्या अभी चल ही रही पाया गया, और इस लिये उन्हें उस समय उसको छोटा थी कि इतने में घंटा बज गया और वे दूसरी कक्षामें जामेके कहना ही विवपित था वही उन्होंने उसके विषय में कहा। खिये उठने लगे। यह देखकर कचाके सब विद्यार्थी एक जो जिस समय विवचित होता है वह 'मुख्य' कहलाता है दम खये हो गये और अध्यापकजीको अभिवादन करके और जो विषषित नहीं होता वह 'गौय' कहा जाता है। कहने लगे-'भाज तो मापने तत्वज्ञानकी बड़ी बड़ी मुख्य-गौणकी इस व्यवस्थासे ही वचन-व्यवहारकी ठीक गंभीर तथा सूचम बार्तीको ऐसी सरलता और सुगम रीति म्यवस्था बनती है। अत: जिनदासजीके उक्त बथनमें दोषा- से बातकी बातमें समझा दिया है कि हम उन्हें जीवनभर पत्तिक लिये कोई स्थान नहीं है। अनेकान्तके प्रतिपादक भी नहीं भल सकते । स उपकारके लिये हम भापके भ्याद्वादियोंका 'स्यात' पदका प्राश्रय तो उनके कथनमें आजन्म ऋणी रहेंगे।' अतिप्रसंग जैसा गबबब-गुठाला भी नहीं होने देता। बहुत से छोटेपनों और बहुतसे बडेपनों में जो जिस समय कहने वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ।
जुगलकिशोर मुख्तार वाखेको विवचित होता है उसीका ग्रहण किया जाता - ना.३० सितम्बर १६४३ ,
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कवि-कर्तव्य मानवता की इस प्यालीमें, रस है कहाँ, कि जो छलकाएँ
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हमने समझा, सुख-दुख क्या है ? सिर्फ मानने ही भर का है! 'ले 'विवेक' से काम निरन्तर-' 'ज'वन' की यह परिभाषा है!! दुख-सुख दोनों ही 'बन्धन' हैकहने को कुछ भी कहलाएँ !
माया के जाले से सहसाश्राज निकलना सहज नहीं है! तनिक निकल कर देख लीजिएमक्ति नहीं, तो स्वर्ग यहीं है!! चेष्टाएँ निष्फल होतों जब
कैसे हम सुख-पथ पर आएँ ? सिसक रही मानवता-मृदुतापनप रही जग में निष्ठुरता! 'सत्य' 'शान्ति'की होली जलती"हिंसा' है छू रही अमरतो !! मन दबोच रक्खा है जिननेउनसे पहले पिण्ड छुड़ाएँ!
धना-साथ लेकर बढ़ते हैंहोते हैं जब उसमें असफल ! रक्त बहाने तक में उन कानहीं काँपता तच अन्तस्तल !! श्रात्म ज्ञान के बिना व्यर्थ हैं
पूरब - पश्चिम की चर्चाएँ ! जो कुछ भी संकट आया है! सब, अपने उर की छाया है ! खोकर ज्ञान, अँधेरा पायावही 'अँधेर।' रंग लाया है!! मीठे-श्राम चाहती, जड़ताखाएँ या कि नहीं खा पाएँ?
करनी का फल सब पाते हैं! करके ही सब पछताते है!! पहले क्यों न सोच लेते वरजो ऐसे अवसर पाते हैं! आखिर यही उचित लगता हैअपने ही को हम अपनाएँ!
अनेकान्तमें प्रकाशित । - इसी शीर्षककी कविता
का दूसरा पहलू]
[श्री 'भगवत्' जैन]