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किरण २]
स्वाधीनताकी दिव्यज्योति
बेचूंगा न आजादी को, लेकर मैं गुलामी। तब युद्ध तीन किस्मके होते हैं मुकर्रर । भाई हैं बराबर के,हों क्यों सेत्रकों स्वामी ? जल-युद्ध, मल्ल-युद्ध, दृष्टि-युद्ध, भयंकर ॥ मत डालिए अच्छा है यही प्यारमें खामी । फिर देर थी क्या ?लड़ने लगे दोनों बिरादर। पाऊँगा नहीं जीते-जी देनेको सलामी ।।' दर्शक हैं खड़े देखते इकटक किए नजर ।।
सुन करके वचन, राज-दूत लौटके आया। कितना ये दर्दनाक है दुनियाका रबैया ।
भरतेशको आकर के सभी हाल सुनाया। __ लड़ता है ज.र-जमीको यहाँ भैयासे भेया । चुप सुनते रहे जब तलक, काबुमें रहा दिल। अचरज में सभी हुबे जब ये सामने पाया। पर, देर तक खामोशीपारखना हुआ मुश्किल ॥ जल-युद्ध में चक्रीको बाहूबलिने हराया ॥ फिर बोले जग जोरसे, होक्रोधसे साफिल । झुमला उठे भरतेश कि अपमान था पाया। 'मरनेके लिए श्राएगा, क्या मेरे मुकाबिल ? था सत्र, कि है जंग अभी और बनाया।
छोटा है, मगर उमको बड़ा-सा रारूर है। ___ 'इस जीतमें बाहूबलीके कदकी ऊँचाई।
मुझको घमण्ड उसका मिटाना जरूर है।' लोगोंने कहा-सूच ही वह काममें आई !!' फिर क्या था, समर-भूमिमें बजने लगे बाजे। भरतेशके छींटे सभी लगते थे गले पर। हथियार उठाने लगे नृप थे जो विराजे॥ बाहूबलीके पड़ते थे जा आँखके अन्दर ।। घोड़े भी लगे हीमने, गजराज भी गाजे । दुखने लगी आँखें,कि लगा जैसे हो खंजर। कायर थे, छिपा आँख वे रण-भूमिसे भाजे ॥ आखिर यों, हार माननी ही पड़गई थककर ।।
सुभटोंने किया दूर जब इन्सानका जामा । ढाईमी-धनुष-दुगनी थी चक्रीशकी काया।
घनघोर-से संग्रामका तब सज गया सामाँ ।। ___ लघु-भ्रातकी पश्चीस अधिक, भाग्यकी माया।। || दोनों ही पक्ष आगए, आकर अनी भिड़ी। फिर दृष्टि-युद्ध, दूसरा भी सामने आया।
सवको यकीन यह था कि दोनों में अब छिड़ी।। अचरज, कि चक्रातिको इसमें भी हराया ।। इतने में एक बात वहाँ ऐसी सन पड़ी। लघु-भ्रातको इसमें भी महायक हुई काया। जिसने कि युद्ध-क्षेत्र में फैलादी गड़बड़ी ॥ सब दंग हुए देख ये अनहोनी-सी माया ॥
हाथोंमें उठे रह गए जो शख उठे थे। चक्रीशको पड़ती थी नज़र अपनी उठानी ।
मुँह रह गए वे मौन. जो कहनेको खुले थे। पड़ती थी जब कि दृष्टि बाहुबलिको भुकानी।। ये सुन पड़ा-न वीरोंके अत्र खून बहेंगे। गर्दन भी थकी, थक गए जब आँखके तारे। भरतेश व बाहूबली खुद आके लड़ेंगे। लाचार हो कहनाडा भरतेशको-'हारे॥ दोनों ही युद्ध करके स्व-बल आजमालेंगे। गुस्से में हुई आँखें, धधकते-से अँगारे ।। हारेंगे वही विश्वकी नजरोंमें गिरेंगे ॥ ॥ पर, दिलमें बड़े जोरसे चलने लगे पारे । दोनों ही बली, दोनों ही है चरम-शरीरी। तन करके रोम-रोम खड़ा होगया तनका । धारण करेंगे चादको दोनों ही फकीरी॥ | मुँह पर भी झलकने लगा जो क्रोध था मनका ॥ क्या फायदा है व्यर्थ में जो फौज कटाएँ ? सब काँप उठेकोध जो चक्रीशका देखा। बेकार गरीबोंका यहाँ खून बहाएँ ? चेहरे पे उभर आई थी अपमानकी रेखा । दोजनका सीन किसलिए हम सामने लाएँ ? सब कहने लगे-'अबके बदल जाएगा लेखा। क्यों नारियोंको व्यर्थ में विधवाएँ बनाएँ? रहनेका नहीं चक्रीके मन, जयका परेवा।।' दोनोंके मंत्रियोंने इसे तय किया मिलकर । चक्रीशके मनमेंथा-'विजय अबके मैं लंगा। फिर दोनों नरेशोंने दी स्वीकारता इसपर ।। । पाते ही अस्बा, उसे मद-हीन करूँगा ।।'
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