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अनेकान्त
[वर्ष ६
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वह वक्त भी फिर आ ही गया मीड़के भागे। 'धिकार है दुनिया कि है बमभरका तमाशा। दोनों ही सुभट लड़ने लगे क्रोधमें पागे॥ भटकाता, भ्रमाता है पुण्य-पापका पाशा ।। हम भाग्यवान् इनको कहें, या कि अभागे? कर सकते वफादारीकी हम किस तरह बाशा? आपसमें लड़ रहे जो खड़े प्रेमको त्यागे॥ है भाई जहाँ भाई ही के खूनका प्यासा ।। होती रही कुछ देर घमासान लड़ाई । चक्रीश! चक्रलोड़ते क्या यह था विचारा ?
भर-पूर दाव-पेचमें ये दोनों ही भाई॥ मर जाएगा बे-मौत मेरा भाई दुलारा॥ दर्शकये दंग-देख विकट-युद्ध-थेथर-थर । भाईके प्राणसे भी अधिक राज्य है प्यारा। देवोंसे घिर रहा था समर-भूमिका अम्बर ।। दिखला दिया तुमने इसे, निज कृत्यके द्वारा।। नीचे था युद्ध हो रहा दोनोंमें परस्पर । तीनों ही युद्धमें हुआ अपमान तुम्हारा। बाहूबली नीचे कभी ऊपर थे चक्रधर ।। जब हार गए, न्यायसे हट चक्र भी मारा॥ फिर देखते ही देखते ये दृश्य दिखाया। देवोपुनीत-शत न करते हैं. बंश-घात ।
बाहूबलीने भरतको कन्धे पै उठाया। - भूले इसे भी, आगया जब दिलमें पक्षपात ।। यह पास था कि चक्रोको धरती पै पटक दें। मैं बच गया पर तुमने नहीं छोड़ी कसर थी। अपनी विजयसे विश्वकी सीमाओंको ढकदें। सोषो, जरा भी दिलमें मुहब्बतकी लहर थी? रण-थलमें बाहु-बलसे विरोधीको झटक दें। दिलमें था नहर, पागके मानिद नज़र थी। भूले नहीं जो जिन्दगी-भर ऐसा सबक दें। थे चाहते कि जल्द बँधे भाईकी अरथी॥ . पर, मनमें सोभ्यताकी सही बात ये आई।
अन्धा किया है तुमको, परिग्रहकी चाँहने । __'आखिर तो पूज्य हैं किपितासम बड़े भाई !!' सब-कुछ भुला दिया है गुनाहोंकी छाहने । उस ओर भरतराजका मन क्रोधमें पागा। सोचो तो, बना रह सका किसका घमण्ड है? 'प्राणान्त कर, भाईका यह भाव था जागा।। जिसने किया. उसीका हुआ खण्ड-खण्डहे। अपमानकी ज्वालामें मनुज-धर्म भी त्यागा। || अपमान, अहंकारकी चेष्टाका दण्ड है। फिर चक्र चलाकर किया सोनेमें सहागा ॥ किस्मतका बदा, बल सभी बलमें प्रचण्ड है॥ वह चक्र जिसके बल' छहों खण्ड झुके थे। है राज्यकी ख्वाहिश तुम्हें लो राज्य सँभालो।
अमरेश तक भी हार जिससे मान चुके थे। गद्दी पै विराजे उसे कदमोंमें झुकालो। कन्धेसे ही उस चक्रको चक्रीने चलाया। JII उस राज्य को धिकार कि जो मदमें दुबा दे। सुर-नरने तभी 'आह'से आकाश गुंजाया ।। अन्याय और न्यायका सब भेद भुलादे॥ सब सोच उठे-'देवके मन क्या है समाया ?' भाईकी मुहब्बतको भी मिट्टी में मिलादे। पर, चक्रने भाईका नहीं खून बहाया ॥ या यों कहो-इन्सानको हैवान बनादे॥
वह सौम्य हुआ, छोड़ बनावटकी निठुरता।|| दरकार नहीं ऐसे घृणित-राज्यकी मनको।
देने लगा प्रदक्षिणा, धर मनमें नम्रता ।। मैं छोड़ता हूँ आजसे इस नारकीपनको ।' फिर चक्र लौट हाथमें चक्रोशके आया। यह कहके चले बाहुबली मुक्तिके पथपर। सन्तोष-सा, हर शख्शके चेहरे 4 दिखाया। सब देखते रहे कि हुए हों सभी पत्थर। श्रद्धासे पाहुबलिको सबने भाल झुकाया।
भरतेशके भीतर था व्यथाओंका ववार । फिर काल-चक्र रश्य नया सामने लाया ।।
स्वर मौन था, अटलथे,कि धरतीपैथी नज़र।। भरतेशको रण-भूमिमें धीरे-से उतारा ।
आँखोंमें भागया था दुखी-प्राणका पानी। तत्काल बहाने लगे फिर दूसरी धारा ॥
देख रहे थे खड़े वैभवकी कहानी।