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किरण २]
साहित्यकी महत्ता
की अरचि या उपेक्षाहष्टि भी हिन्दी जैनसाहित्यके प्रकट उनका लक्ष्य मानयोकी चरम उमतिकी मोरही रहा, रहनेमें कारण है। उच्च कोटिके अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए वे पवित्र लोकोद्वारके लक्ष्यको लेकर ही साहित्य-संहारमें लोगोंकी तो इस ओर रुचि ही नहीं है, उन्हें तो इस बात अवतीर्ण हुए हैं और उन्होंने उस दिशामें पूर्ण सफलता का विश्वास ही नहीं कि हिन्दीमें भी उनके सोचने और प्रास की है। प्रात्म-परिचय और मानव-कर्तव्यके चित्रोंको विचार करनेकी कोई चीज मिल सकती है। शेष रहे उन्होंने बड़ी कुशलताके साथ चित्रित किया है, भक्ति, बैराग्य, संस्कृतश सज्जन सो उनकी दृष्टिमें बेचारी हिन्दी भाषाकी। उपदेश और तत्वनिरूपण-विषयक जैन-कषियोंकी कविताएं औकात ही क्या है ? वे अपनी संस्कृतकी धुनमें ही मस्त एकसे एक बढ़कर है। वैराग्य और संमारकी अनित्यता रहते हैं।
पर जैसी उत्तम रचनाएँ जैन-कवियोकी है वैसी रचना हिन्दीके जैनसाहित्यकी प्रकृति शानिरस है। जैन करने में बहुत कम समर्थ हुए है। कवियोंके प्रत्येक ग्रंथमें इसी रसकी प्रधानता है। उन्होंने हिन्दी जैनसाहित्यमें चार प्रकारका साहित्य प्राप्त होता साहित्यके उच्चतम लक्ष्यको स्थिर रक्खा है। भारत के है-१ तात्विक.ग्रंथ २ पद-भजन-प्रार्थनायें। पुराणचरित्रअन्य प्रतिशत निन्यानवं कवि केवल शृङ्गारकी रचना करने कथादि, ४ पूजापाठ | जैनियोके प्रथम भणीकविवर में ही व्यस्त रहे है। कविवर तुलसीदास, कबीरदास, नानक बनारसीदास, भगवतीदास और भूधरदास आदि कवियोने भूषण आदि कुछ कवि ही ऐसे हुए है जिन्होंने भक्ति, प्राय:श्राध्यास्मिक तथा प्रास्मनिर्णयके गंभीर विषयों पर रचना अध्यात्म और वीरताके दर्शन कराये हैं। इनके अतिरिक्त की और है इन रचनामों में उन्होंने पूर्ण सफलता प्राप्त की है। हिन्दीके प्रायः सभी कवियोंने शृङ्गार और विलासकी मदिरा कविवर द्यानतराय, दौलतराम, भागचंद और बुधनन से ही अपने कापरसको पुष्ट किया है, इसके परिणामस्वरूप आदि कवि दुमरी श्रेणीके कवि हुए।नोने अधिकतर भारत अपने कर्तव्यों और श्रादर्श-चरित्रोंको भूलने लगा
पद-भजन और विनतियोंकी ही रचना की है। आपके पदामें और उनमें से शक्ति और श्रीज नष्ट होने लगा । राजाओं आध्यात्मिकता, भक्ति और उपदेशोका गारा रंग है। भाषा तथा जमींदागेके आश्रित रहनेवाले शृङ्गारी और खुशामदी और भाव दोनों दृष्टियोंसे इनके पद महत्वशाली है। इनके कवियांने उन्हें कामिनीकटाक्षोमे बाहर नहीं निकलने दिया। अतिरिक्त महनों जैन कवियोंने पुगण, चरित्र, पूजा-पाठ और वास्तव में भारत के पतनमें ऐसे विलासी कवियोंने अधिक भजनोंकी रचना की है जो साहित्यिक दृष्टिमे इतनी महत्वसहायता पहुंचाई है और जनताका मनोबल नष्ट करने में ___ शाली नहीं है जितनी कि प्रादर्श और भक्ति के रूपमें है। उनकी शृङ्गारी कविताने जहरका काम किया है । साहित्य उथ श्रेणीके कवियोंका क्षेत्र आध्यात्मिक रहा. इस का प्रधान लक्ष्य जनतामें मश्चरित्रना, संयम, कर्तव्यशीलता लिये साधारण जनता उनके काव्यकं महत्व तक नहीं पहुँच और वीरत्वकी पुष्टि करना है और उन्हें पवित्र प्रादर्शकी सकी। यदि इन कवियं ने चरित्र या कथा प्रन्योकी रचना की ओर लेजाना ही काव्यका मर्वश्रेष्ठ गुग्ण है। श्रानंद और होती या भक्ति रसमें रहे होते तो आज इनका साहित्य सारे विनोद तो उसका गौण साधन है । जेन कवियोंने शृङ्गार संसारमें उच्च मान पाना, किन्तु उन्होंने जो कुछ भी लिखा
और विलासरसमे पुष्ट किये जाने वाले साहित्यक बुगमें भी वह अत्यन्त गौरवकी वस्तु है। उसे भारतीय साहित्यसे उससे अपनेको सर्वथा विमुख रक्खा है यह उनकी अपूर्व अलग नहीं किया जा सकता है। आज हमाग बहुजितेन्द्रियता और सचरित्रताका परिचायक है, ये केवल विस्तृत हिन्दी जेनकाव्य-भंडार छिन्न-भिन्न पड़ा हुआ है, शृङ्गारकाव्यसे उदासीन ही नहीं थे किन्तु उसके कहर विरोधी यदि उसकी खोज की जाय जो उसमेंसे ऐसे अनेक काव्यरहे हैं। कविवर वनारसीदास, भैया भगवतीदास और रस्नोंकी प्राप्ति हो सकती है जिनसे हिन्दी साहित्यके इतिहास मुघरदासजीने अपने काव्योंमें श्रृंगाररस और श्रृंगारी में नवीनताकीद हो सकती है। साहित्यिक विद्वानोका कषियोंकी काफी निंदा की है। जैनकवियोने मानव कर्तव्य कर्तव्योकि वे म दिशामें प्रयत्नशील और प्राचीन और आत्मनिर्णयमें ही अपनी काव्य कलाको प्रदर्शित किया साहित्यके गौरवसे साहित्यिक जनताको परिचित कराएँ।