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अतीत स्मृति
___ स्व० ला० जम्बूप्रसाद जैन रईस * श्री कन्हैयालाल मित्र सहारनपुर यू०पी०
'प्रभाकर' - - - - --HTASE
NSES ('अनेकान्त' की प्रायः प्रत्येक किरण में इस स्तम्भके अन्तर्गत समाजके उन स्वर्गवासी महानुभावोंके जीवनसंस्मरण रहा करेंगे जिन्होंने अपने जीवन में धर्म, समाज, जाति और गष्ट्रकी सेवामें कुछ भी सहयोग दिया है।)
"सारा समाज सोजाये, कोई साथ न दे, तब आपरेशन हुथा। मृत्यु सामने खड़ी थी, जीवन दूर भी मैं लडूंगा!"
दिखाई देता था, सबने चाहा कि वे पास रहे, पर उन्हें राज्यने सम्मेद शिखरजी का तीर्थ श्वेताम्बर अवकाश न था, वे न पाये। यह उनकी धुन, उनकी समाजको बेच दिया था और उससे तीन प्रश्न लगनकी एक तस्वीर है, बहुत चमकदार और पूजाके उभर आये थे । श्वेताम्बरोंका आग्रह था कि लायक, पर यह अधूरी है यदि हम यह न जानलें कि हम दिगम्बरोंको इस तीथकी यात्रा न करने देंगें, यह तब लाला जम्बूप्रसाद किस स्थितिमें थे, जब समाजके दिगम्बरियोंका घोर अपमान था, यह पहला प्रश्न। अपमानका यह चैलेंज उन्होंने स्वीकार किया था। राज्यको तीर्थ बेचनेका अधिकार नहीं है, क्योंकि
सन् १८७७ में जन्मे और १६०० में इस स्टेटमें तीर्थ कोई सम्पत्ति नहीं है, यह दूसरा प्रश्न । और
दत्तक पुत्रके रूपमें आये। तब वे मेरठ कालिजके तीर्थक सम्बन्धमें दिगम्बरों के अधिकारका प्रश्न । एकहोनहार विद्यार्थी थे। १८४३ में उनका विवाह दिगम्बर समाजका हरेक आदमी बेचैन था, पर हो गया था.परहिवा
हो गया था, पर विवाहका बन्धन और इतनी बड़ी कोरी बचैनी क्या करेगी? यहाँ तो आगे बढ़कर एक
स्टेटकी प्राप्ति उनके विद्या-प्रमको न जीतमकी और पूरा युद्ध सिरपर लेनेकी बात थी, उसके लिये प्रायः
वे पढ़ते गए, पर कुटुम्बके दूसरे सदस्य स्टेटके अधिकोई तैयार न था। इतने विशाल समाज में एक सिर
कारी बनकर आये और मुकदमेबाजी शुरू हुई। उभरकर उठा, एक कदम आगे बढ़ा और एक बाणी
यह जीवन-मरणका प्रश्न था, कालेजको नमस्कारकर सबके कानों में प्रतिध्वनित हुई
वे इस संघर्ष में आकूदे और १६०७ में विजयी हुए। "सारा समाज सो जाये, कोई साथ न दे, तब भी
स्व० पण्डित मोतीलाल नेहरू प्रिविौसिल में आपके मैं लहूंगा। यह दिगम्बर ममाजक जीवन-मरणका
वकील थे और आपकी विजय, किसी विवाहित युवाके प्रश्न है। मैं इसकी उपेक्षा नहीं कर सकता!"
दत्तक होनेकी पहली नजीर थी । यह विजय बहुत यह सहारनपुर के प्रख्यात ईस ला० जम्यूप्रसाद
बड़ी थी, पर बहुत मँहगी भी । स्टेट की आर्थिक जी की वाणी थी, जिसने सारे समाज में एक नव
स्थितिपर इसका गहरा प्रभाव पड़ा था और आप चेतनाकी फुहार परमादी । मीठे बोल बोलना भले ही
उमे सम्भाल ही रहे थे कि शिस्वरजीका आह्वान मुश्किल हो, ऊँचे बोल बोलना बहुत सरल है। इस
आपने स्वीकार कर लिया। सरलतामें कठिनताकी सृष्टि तब होती है, जब उनके
हमने ला० जम्बूप्रसादजीको नहीं देखा, पर इस अनुसार काम करनेका समय आता है। लालाजीने ऊँचे बोल बोले और उन्हें निबाहा, ५० हजार सारी स्थितिकी हम सही सही कल्पना करते हैं, तो चान्दीके सिके अपने घरमे निकालकर उन्होंने खचे एक दृढ़ आत्माका चित्र हमारे मामने बाजाता है। किये। और श्रीला० देवीसहायजी फीरोजपुर निवासी आन्धियों में अकम्प और संघर्षों में शान्त रहने वाली एवं श्री तीर्थक्षेत्र कमेटी बम्बईके कन्धेसे कन्धा मिला यह दृढ़ता, परिस्थितियोकी ओर न देरू.कर, लक्ष्यकी कर पूरे २॥ वर्ष तक रात दिन अपनेकोभूले, वे उसमें ओर देखने वाली यह वृत्ति ही वास्तवमें जम्यूप्रमाद जुटे रहे और तब चैनसे बैठे, जब समाजके गलेमें थी, जो लाला जम्बूप्रसाद नामके देहके भस्म होनेपर विजयकी माला पड़ चुकी।
भी जीवित है, जागृत है, और प्रेरणाशील है। मुकदमेके दिनों में ही उनकी पत्नीका भयहर इस तस्वीरका एक कोना और हम मॉकलें।