Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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छठा शतक : उद्देशक-४
समान करना चाहिए, क्योंकि जीवत्व की तरह सलेश्यत्व भी अनादि है, इसलिए इन दोनों में किसी प्रकार की विशेषता नहीं है, किन्तु इतना विशेष है कि सलेश्य प्रकरण में सिद्ध पद नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्ध अलेश्य होते हैं । कृष्ण-नील- कापोतलेश्यावान् जीव और नैरयिकों के प्रत्येक के दो-दो दण्डक आहारक जीव की तरह कहने चाहिए। जिन जीव एवं नैरयिकादि में जो लेश्या हो, वही कहनी चाहिए। जैसे कि कृष्णादि तीन लेश्याएँ ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों में नहीं होतीं। सिद्धों में तो कोई भी लेश्या नहीं होती। तेजोलेश्या के एकवचन और बहुवचन को लेकर दो दण्डक कहने चाहिए। बहुवचन की अपेक्षा द्वितीय दण्डक में जीवादिपदों के तीन भंग होते हैं। पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय में ६ भंग होते हैं, क्योंकि पृथ्वीकायादि जीवों में तेजोलेश्यावाले एकादि देव — (पूर्वोत्पन्न और उत्पद्यमान दोनों प्रकार के) पाए जाते हैं । इसलिए सप्रदेशत्व और अप्रदेशत्व के एकत्व और बहुत्व का सम्भव है। तेजोलेश्याप्रकरण में नैरयिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, विकलेन्द्रिय और सिद्ध, ये पद नहीं कहने चाहिए, क्योंकि उनमें तेजोलेश्या नहीं होती । पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या के दो-दो दण्डक कहने चाहिए। दूसरे दण्डक में जीवादि पदों में तीन भंग कहने चाहिए। पद्मशुक्ललेश्याप्रकरण में पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य और वैमानिक देव ही कहने चाहिए; क्योंकि इनके सिवाय दूसरे जीवों में ये लेश्याएँ नहीं होतीं। अलेश्य जीव के एकवचन और बहुवचन को लेकर दो दण्डकों में जीव, मनुष्य और सिद्ध पद का ही कथन करना चाहिए; क्योंकि दूसरे जीवों में अलेश्यत्व संभव नहीं है। इनमें जीव और सिद्ध में तीन भंग और मनुष्य में छह भंग कहने चाहिए; क्योंकि अलेश्यत्व प्रतिपन्न ( प्राप्त किये हुए) और प्रतिपद्यमान (प्राप्त करते हुए) एकादि मनुष्यों का सम्भव होने से सप्रदेशत्व में और अप्रदेशत्व में एकवचन और बहुवचन सम्भव है ।
६. दृष्टिद्वार - सम्यग्दृष्टि के दो दण्डकों में सम्यग्दर्शनप्राप्ति के प्रथम समय में अप्रदेशत्व है, और बाद के द्वितीय - तृतीयादि समयों में सप्रदेशत्व है। इनमें दूसरे दण्डक में जीवादिपदों में पूर्वोक्त तीन भंग कहने चाहिए। विकलेन्द्रियों में पूर्वोत्पन्न और उत्पद्यमान एकादि सास्वादन सम्यग्दृष्टि जीव पाए जाते हैं, इस कारण इनमें ६ भंग जानने चाहिए। अतः सप्रदेशत्व और अप्रदेशत्व में एकत्व और बहुत्व संभव है। एकेन्द्रिय सर्वथा मिथ्यादृष्टि होते हैं, उनमें सम्यग्दर्शन न होने से सम्यग्दृष्टिद्वार में एकेन्द्रियपद का कथन नहीं करना चाहिए। मिथ्यादृष्टि के एकवचन और बहुवचन से दो दण्डक कहने चाहिए। उनमें से दूसरे दण्डक में जीवादि पदों के तीन भंग होते हैं; क्योंकि मिथ्यात्व - प्रतिपन्न ( प्राप्त) जीव बहुत हैं और सम्यकत्व से भ्रष्ट होने के बाद मिथ्यात्व प्रतिपद्यमान एक जीव भी संभव है। इस कारण तीन भंग होते हैं। मिथ्यादृष्टि के प्रकरण में एकेन्द्रिय जीवों 'बहुत प्रदेश और बहुत अप्रदेश', यह एक ही भंग पाया जाता है, क्योंकि एकेन्द्रिय जीवों में अवस्थित और उत्पद्यमान बहुत होते हैं। इस (मिथ्यादृष्टि) प्रकरण में सिद्धों का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनमें मिथ्यात्व नहीं होता । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के एकवचन और बहुवचन, ये दो दण्डक कहने चाहिए। उनमें से बहुवचन के दण्डक में ६ भंग होते हैं; क्योंकि सम्यग्मिथ्यादृष्टित्व को प्राप्त और प्रतिपद्यमान एकादि जीव भी पाए जाते हैं। इस सम्यग्मिथ्यादृष्टिद्वार में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सिद्ध जीवों का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनमें सम्यग्मिथ्यादृष्टित्व असम्भव है।
७. संयतद्वार - 'संयत' शब्द से विशेषित जीवों में तीन भंग कहने चाहिए; क्योंकि संयम को प्राप्त