Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जस्सट्ठाए कीरइ नग्गभावो जाव तमटुं आराहेइ, २ जाव सव्वदुक्खप्पहीणे।
[१६] इसके पश्चात् वह ऋषभदत्त ब्राह्मण, श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्म-श्रवण कर और उसे हृदय में धारण करके हर्षित और सन्तुष्ट होकर खड़ा हुआ। खड़े होकर उसने श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, यावत् वन्दन-नमन करके इस प्रकार निवेदन किया-'भगवन् ! आपने कहा, वैसा ही है, आपका कथन यथार्थ है भगवन्!' इत्यादि (दूसरे शतक के प्रथम उद्देशक सू. ३४ में) स्कन्दक तापस-प्रकरण में कहे अनुसार, यावत् जो आप कहते हैं वह उसी प्रकार है। इस प्रकार कह कर वह (ऋषभदत्त ब्राह्मण) ईशानकोण (उत्तरपूर्व-दिशाभाग) में गया। वहाँ जा कर उसने स्वयमेव आभूषण, माला
और अलंकार उतार दिये। फिर स्वयमेव पंचमुष्टि केशलोच किया और श्रमण भगवन् महावीर के पास आया। भगवान् की तीन बार प्रदक्षिणा की, यावत् नमस्कार करके इस प्रकार कहा- भगवान् ! (जरा और मरण से) यह लोक चारों ओर से प्रज्वलित हो रहा है, भगवन् ! यह लोक चारों ओर से अत्यन्त जल रहा है, इत्यादि कह कर (द्वितीय शतक, प्रथम उद्देशक, सू. ३४ में) जिस प्रकार स्कन्दक तापस की प्रव्रज्या का प्रकरण है, तदनुसार (ऋषभदत्त ब्राह्मण ने) प्रव्रज्या ग्रहण की, यावत् सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, यावत् बहुत से उपवास (चतुर्थभक्त), बेला (षष्ठभक्त), तेला (अष्टमभक्त), चौला (दशमभक्त) इत्यादि विचित्र तप:कर्मों से आत्मा को भावित करते हुए संल्लेखना से आत्मा को संलिखित करके साठ भक्तों का अनशन से छेदन किया और ऐसा करके जिस उद्देश्य से नग्नभाव (निर्ग्रन्थत्व संयम) स्वीकार किया, यावत् उस निर्वाण रूप अर्थ की आराधना कर ली, यावत् वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत्त एवं सर्वदुःखों से रहित हुए।
विवेचन—भगवान् का धर्मोपदेश-श्रवण एवं दीक्षाग्रहण—सू. १५-१६ में भगवान् की धर्म कथा सुनकर संसारविरक्त होकर ऋषभदत्त के द्वारा दीक्षाग्रहण, शास्त्राध्ययन, तपश्चरण और अन्त में संल्लेखना -संथारापूर्वक, समाधिमरण की आराधनापूर्वक सिद्ध-बुद्ध-मुक्तदशा की प्राप्ति । यह जीव का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत किया गया है।
कठिन शब्दों के अर्थ-इसिपरिसाए-क्रान्तदर्शी साधक मुनियों की सभा, ज्ञानी होते हैं, वे ऋषि हैं। आलित्ते पलित्ते-आदीप्त-चारों ओर से जल रहा है, प्रदीप्त- विशेष रूप से जल रहा है। सामण्णपरियायं श्रमणत्व-दीक्षा को। अत्ताणं झूसित्ता-अपनी आत्मा पर आए हुए कर्मावरणों को भस्म करके आत्मा को शुद्ध करके अथवा संल्लेखना से आत्मा के साथ लगे हुए कषायों को कृश करके। सर्टि भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता-साठ टंक के चतुर्विध आहाररूप भोजन के त्याग के रूप में अनशन (यावज्जीवन आहारत्याग) से छेदन (कर्मों को छिन्न-भिन्न करके या मोहनीयादि घाति-अघाति सर्व कर्मों का क्षय) करके । नग्गभाव-नग्नभाव का तात्पर्य निर्ग्रन्थभाव है। विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं– विविध प्रकार
१. भगवती. (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. ४५३ २. पश्यन्तीति ऋषयः ज्ञानिनः-भग. अ. वृ., पत्र ४६०