Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
नवम शतक : उद्देशक-३३
५४९ कर जमीन की सफाई करके उसे लिपाओ, इत्यादि औपपातिक सूत्र में अंकित वर्णन के अनुसार यावत् कार्य करके उन कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञा वापस सौंपी।
४७. तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया दोच्चं पि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी—खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! जमालिस्स खत्तियकुमारस्स महत्थं महग्धं महरिहं विपुलं निक्खमणाभिसेयं उवट्ठवेह।
[४७] इसके पश्चात् क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने दुबारा उन कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और फिर उनसे इस प्रकार कहा—हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही जमालि क्षत्रियकुमार के महार्थ महामूल्य, महार्ह (महान् पुरुषों के योग्य) और विपुल निष्क्रमणाभिषेक की तैयारी करो।
४८. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा तहेव जाव पच्चप्पिणंति। [४८] इस पर कौटुम्बिक पुरुषों ने उनकी आज्ञानुसार कार्य करके आज्ञा वापस सौंपी।
विवेचन—कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा नगर की सफाई एवं निष्क्रमणाभिषेक की तैयारी— प्रस्तुत तीन सूत्रों (४६ से ४८ तक) में जमालि के पिता ने दीक्षा की आज्ञा देने के बाद नगर को पूर्ण साफ-सुधरा बनाने का और दीक्षाभिषेक की विधिवत् तैयारी का कौटुम्बिक पुरुषों को आदेश दिया, जिसका पालन उन्होंने किया।
कठिन शब्दों का भावार्थ-सब्भितरबाहिरियं—अन्दर बाहर को। आसिय- पानी से सींचो (छिड़काव करो)। सम्मज्जिय-झाड़ आदि से सफाई करो। उवलित्तं-लीपना। महत्थं–महाप्रयोजन वाला। महग्धं—महामूल्यवान्। महरिहं—महान् पुरुषों के योग्य या महापूज्य। निक्खमणाभिसेयंनिष्क्रमणाभिषेक सामग्री को। उवट्ठवेह—उपस्थित करो या तैयार करो।
४९. तए णं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहं निसीयावेंति, निसीयावेत्ता अट्ठसएणं सोवणियाणं कलसाणं एवं जहा रायप्पसेणइज्जे जाव अट्ठसएणं भोमिज्जाणं
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १, पृ. ४६५ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४७३ ३. राजप्रश्नीयसूत्रानुसार पाठ यह है—-'अट्ठसएणं सुवण्णमयाणं कलसाणं, अट्ठसएणं रूपमयाणं कलसाणं, अट्ठसएणं
मणिमयाणं कलसाणं,अट्ठसएणंसुवण्ण-रूप्पमयाणंकलसाणं, अट्ठसएणं सुवण्ण-मणिमयाणं कलसाणं,अट्ठसएणं रूप्प-मणिमयाणं कलसाणं, अट्ठसएणं सुवण्ण-रूप्प-मणिमयाणं कलसाणं॥'
-रायप्पसेणइज्ज (गुर्जर ग्रन्थ) पृ. २४१-२४२ कण्डिका १३५