Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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नवम शतक : उद्देशक-३४
५८५ गोयमा! नियमा ताव इसिवेरेणं पुढे १, अहवा इसिवेरेण य णोइसिवेरेण य पुढे २, अहवा इसिवेरेण य नोइसिवेरेहि य पुढे ३।
[८ प्र.] भगवन् ! ऋषि को मारता हुआ कोई पुरुष क्या ऋषिवैर से स्पृष्ट होता है, या नोऋषिवैर से स्पृष्ट होता है ?
[८ उ.] गौतम ! वह (ऋषिघातक) नियम.से ऋषिवैर और नोऋषिवैरों से स्पृष्ट होता है।
विवेचन-घातक व्यक्ति के लिए वैरस्पर्शप्ररूपणा—(क) पुरुष को मारने वाले व्यक्ति के लिए वैरस्पर्श के तीन भंग होते हैं। (१) वह नियम से पुरुषवैर से स्पृष्ट होता है, (२) पुरुष को मारते हुए किसी दूसरे प्राणी का वध करे तो एक पुरुषवैर से और एक नोपुरुषवैर से स्पृष्ट होता है, (३)यदि एक पुरुष का वध करता हुआ, अन्य अनेक प्राणियों का वध करे तो वह पुरुषवैर से और अन्य अनेक नोपुरुषवैरों से स्पृष्ट होता है। हस्ती, अश्व आदि के सम्बन्ध में भी सर्वत्र ये ही तीन भंग होते हैं। (ख) सोपक्रम आयुवाले ऋषि का कोई वध करे तो वह प्रथम और तृतीय भंग का अधिकारी बनता है। यथा—वह ऋषिवैर से तो स्पृष्ट होता ही है, किन्तु जब सोपक्रम आयु वाले अचरमशरीरी ऋषि का पुरुष का वध होता है तब उसकी अपेक्षा से यह तीसरा भंग कहा गया है। एकेन्द्रिय जीवों की परस्पर श्वासोच्छ्वाससम्बन्धी प्ररूपणा
९. पुढविकाइए णं भंते ! पुढविकायं चेव आणमति वा पाणमति वा ऊससति वा नीससति वा?
हंता गोयमा! पुढविकाइए पुढविक्काइयं चेव आणमति वा जाव नीससति वा।
[९ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीव को आभ्यन्तर और बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है और छोड़ता है ?
[९ उ.] हाँ, गौतम! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीव को आभ्यन्तर और बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है और छोड़ता है।
१०. पुढविक्काइए णं भंते ! आउक्काइयं आणमति वा जाव नीससति वा ? हंता, गोंयमा! पुढविक्काइए आउक्काइयं आणमति वा जाव नीससति वा।
[१० प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीव को यावत् श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है ?
[१० उ.] हाँ, गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीव को (अभ्यान्तर और बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में) ग्रहण करता और छोड़ता है।
११. एवं तेउक्काइयं वाउक्काइयं। एवं वणस्सइकाइयं।
[११] इसी प्रकार तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीव को भी यावत् ग्रहण करता १. भगवतीसूत्र. अ. वृत्ति, पत्र ४९१