Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 651
________________ ६२० व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र किया गया है, वैसा ही जानना चाहिए, यावत् वे त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उत्पन्न हुए। [प्र.] भगवन् ! जब से वे बिभेल सन्निवेशनिवासी परस्पर सहायक तेतीस गृहपति श्रमणोपासक बलि के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उत्पन्न हुए, क्या तभी से ऐसा कहा जाता है कि वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि के त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? इत्यादि प्रश्न । [उ.] (इसके उत्तर में) शेष सभी वर्णन (सू.७-२ के अनुसार) पूर्ववत् जानना चाहिए। वे अव्युच्छित्ति (द्रव्यार्थिक)-नय की अपेक्षा नित्य हैं । (किन्तु पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा) पुराने (त्रायस्त्रिंशक देव) च्यवते रहते हैं, (उनके स्थान पर) दूसरे (नये) उत्पन्न होते रहते हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। विवेचन–बलीन्द्र के त्रायस्त्रिंशक देवों की नित्यता-अनित्यता का निर्णय प्रस्तुत ८ वें सूत्र में वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि के त्रायस्त्रिंशक देवों के अस्तित्व, उत्पत्ति एवं द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से नित्यता और पर्यायार्थिक-दृष्टि से व्यक्तिगत रूप से अनित्यता किन्तु प्रवाहरूप से अविच्छिन्नता का प्रतिपादन पूर्वसूत्रों के अतिदेश द्वारा किया गया है।' धरणेन्द्र से महाघोषेन्द्र-पर्यन्त के त्रायस्त्रिंशक देवों की नित्यता का निरूपण ९.[१]अत्थि णं भंते! धरणस्स नागकुमारिस्स नागकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा? हंता, अत्थि। [९-१ प्र.] भगवन् ! क्या नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण के त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? [९-१ उ.] हाँ, गौतम ! हैं। [२] से केणढेणं जाव तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा ? गोयमा ! धरणस्स नागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो तावत्तीसगाणं देवाणं सासए नामधेजे पण्णत्ते, जं न कदायि नासी, जाव अन्ने चयंति, अन्ने उववजंति। [९-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण के त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? [९-२ उ.] गौतम! नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण के त्रायस्त्रिंशक देवों के नाम शाश्वत कहे गये हैं। वे किसी समय नहीं थे, ऐसा नहीं है, नहीं रहेंगे ऐसा भी नहीं, यावत् पुराने च्यवते हैं और (उनके स्थान पर) नये उत्पन्न होते हैं। (इसलिए प्रवाहरूप से वे अनादिकाल से हैं)। १०. एवं भूयाणंदस्स वि। एवं जाव महाघोसस्स। १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. २, पृ. ४९५

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