Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 658
________________ दशम शतक : उद्देशक-५ ६२७ सम्बन्ध में भी कहना चाहिए, किन्तु इतना विशेष है कि यम लोकपाल की राजधानी यमा है। शेष सब वर्णन सोम महाराजा के समान जानना चाहिए। ९. एवं वरुणस्स वि, नवरं वरुणाए रायहाणीए। [९] इसी प्रकार (लोकपाल) वरुण महाराजा का भी कथन करना चाहिए। विशेष यही है कि वरुण महाराजा की राजधानी का नाम वरुणा है। (शेष सब वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए।) १०. एवं वेसमणस्स वि, नवरं वेसमणाए रायहाणीए।सेसं तं चेव जावणो चेवणं मेहुणवत्तियं। [१०] इसी प्रकार (लोकपाल) वैश्रमण महाराजा के विषय में भी जानना चाहिए। विशेष इतना ही है कि वैश्रमण की राजधानी वैश्रमणा है। शेष सब वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए, यावत्-वे वहाँ मैथुननिमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं हैं। विवेचन—चमरेन्द्र के चार लोकपालों का देवीपरिवार तथा सुधर्मासभा में भोग असमर्थताप्रस्तुत ५ सूत्रों (६ से १० तक) में चमरेन्द्र के चारों लोकपालों ( सोम, यम, वरुण, वैश्रमण) की अग्रमहिषियों तथा तत्सम्बन्धी देवीवर्ग की संख्या का निरूपण किया गया है। साथ ही अपनी-अपनी राजधानी की सुधर्मा सभा में बैठकर अपने देवीवर्ग के साथ सबकी, मैथुननिमित्तक भोग की असमर्थता बताई गई है। सबकी राजधानी और सिंहासन का नाम अपने-अपने नाम के अनुरूप है।' बलीन्द्र एवं उसके लोकपालों का देवीपरिवार ११. बलिस्स णं भंते ! वइरोयणिंदस्स० पुच्छा। अन्जो! पंच अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा—सुंभा निसुंभा रंभा निरंभा मयणा। तत्थ णं एगमेगाए देवीए अढ० सेसं जहा चमरस्स, नवरं बलिचंचाए रायहाणी परियारो जहा मोउद्देसए (स. ३ उ. १ सु. ११-१२), सेसं तं चेव, जाव मेहुणवत्तियं। [११ प्र.] भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बली की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? [११ उ.] आर्यो ! (बलीन्द्र की) पांच अग्रमहिषियाँ हैं । वे इस प्रकार है-शुम्भा, निशुम्भा, रम्भा, निरम्भा और मदना। इनमें से प्रत्येक देवी (अग्रमहिषी) के आठ-आठ हजार देवियों का परिवार है, इत्यादि शेष समग्र वर्णन चमरेनद्र के देवीवर्ग के समान जानना चाहिए। विशेष इतना है कि बलीन्द्र की राजधानी बलिचंचा है। इनके परिवार का वर्णन तृतीय शतक के प्रथम मोक उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए। शेष सब वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए, यावत्—वह (सुधर्मा सभा में) मैथुननिमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं है। १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. २, पृ. ४९८-४९९ २. यहाँ भगवतीसूत्र के शतक ३ उ.१ के 'मोका' उद्देशक में उल्लिखित वर्णन समझ लेना चाहिए।

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