Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 660
________________ दशम शतक : उद्देशक-५ परियारो, सेसं तं चेव। [१४ प्र.] भगवन् ! क्या धरणेन्द्र (सुधर्मा सभा में देवीपरिवार के साथ) यावत् भोग भोगने में समर्थ है ? इत्यादि प्रश्न। [१४ उ.] पूर्ववत् समग्र कथन जानना चाहिए। विशेष इतना ही है कि (धरणेन्द्र की) राजधानी धरणा में धरण नामक सिंहासन पर (बैठ कर) स्वपरिवार....... शेष सब वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए। १५. धरणस्स णं भंते ! नागकुमारिंदस्स कालवालस्स लोगपालस्स महारण्णो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ? अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–असोगा विमला सुप्पभा सुदंसणा। तत्थ णं एगमेगाए० अवसेसं जहा चमरलोगपालाणं। एवं सेसाणं तिण्ह वि लोगपालाणं। [१५ प्र.] भगवन् ! नागकुमारेन्द्र धरण के लोकपाल कालवाल नामक महाराजा की कितनी अग्रमहिषियाँ .[१५ उ.] आर्यो! (धरणेन्द्र के लोकपाल कालवाल की). चार अग्रमहिषियाँ हैं, यथा अशोका, विमला, सुप्रभा और सुदर्शना । इनमें से एक-एक देवी का परिवार आदि वर्णन चमरेन्द्र के लोकपाल के समान समझना चाहिए। इसी प्रकार (धरणेन्द्र के) शेष तीन लोकपालों के विषय में भी कहना चाहिए। विवेचन–धरणेन्द्र तथा उसके चार लोकपालों का देवीपरिवार तथा सुधर्मासभा में भोगअसमर्थता की प्ररूपणा- प्रस्तुत तीन सूत्रों (१३-१४-१५) में धरणेनद्र तथा उसके लोकपालों की, अग्रमहिषियों सहित देवीवर्ग की संख्या तथा सुधर्मा सभा में उनकी भोग-असमर्थता का प्रतिपादन किया गया है। भूतानन्दादि भवनवासी इन्द्रों तथा उनके लोकपालों का देवीपरिवार १६. भूयाणंदस्स णं भंते ! • पुच्छा। अज्जो! छ अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–रूया रूयंसा सुरूया रूयगावती रूयकंता रूयप्पभा। तत्थ णं एगमेगाए देवीए० अवसेसं जहा थरणस्स। [१६ प्र.] भगवन् ! भूतानन्द (भवनपतीन्द्र) की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? [१६ उ.] आर्यो! भूतानन्द की छह अग्रमहिषियाँ हैं। यथा-रूपा, रूपांशा, सुरूपा, रूपकावती, १. धरणेन्द्र का स्वपरिवार इस प्रकार है-"छहिं सामाणियसाहस्सीहिं तायत्तीसाए तायत्तीसाए, चउहिं लोगपालेहि, छहिं अग्गमहिसीहिं सत्तहिं अणिएहि, सत्तहिं अणियाहिवईहिं चउवीसाए आयरक्खसाहस्सीहिं अन्नेहि य बहूहिं नागकुमारेहिं देवेहि य देवीहि यसद्धिं संपरिवडेत्ति।" -जीवाभिगमसूत्र, भगवती. अ. वृत्ति पत्र ५.६ २. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. २, पृ. ५००

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