Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 655
________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [४ उ.] आर्यो ! (चमरेन्द्र की) पांच अग्रमहिषियाँ कही गई है। वे इस प्रकार – (१) काली, (२) राजी, (३) रजनी, (४) विद्युत और (५) मेघा । इनमें से एक-एक अग्रमहिषी का आठ-आठ हजार देवियों का परिवार कहा गया है। ६२४ एक-एक देवी (अग्रमहिषी) दूसरी आठ-आठ हजार देवियों के परिवार की विकुर्वणा कर सकती है। इस प्रकार पूर्वापर सब मिला कर (पांच अग्रमहिषियों के परिवार में) चालीस हजार देवियाँ हैं। यह एक त्रुटिक (वर्ग) हुआ। विवेचन — चमरेन्द्र की अग्रमहिषियों का परिवार — प्रस्तुत चौथे सूत्र में चमरेन्द्र की ५ अग्रमहिषियों तथा उनके प्रत्येक के ८-८ हजार देवियों का परिवार तथा कुल ४० हजार देवियाँ बताई गई हैं। इन सबका एक वर्ग (त्रुटिक) कहलाता है। कठिन शब्दार्थ — अग्गमहिसी — अग्रमहिषी ( पटरानी या प्रमुख देवी ) । अट्ठट्ठदेवीसहस्साइं— आठ-आठ हजार देवियाँ ।" अपनी सुधर्मा सभा में चमरेन्द्र की मैथुननिमित्तक भोग की असमर्थता ५. [ १ ] पभू णं भंते! चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासांसि तुडिएणं सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ? णो इट्ठे समट्ठे । [५-१ प्र.] भगवन्! क्या असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर अपनी चमरचंचा राजधानी को सुधर्मासभा में चमर नामक सिंहासन पर बैठ कर (पूर्वोक्त) त्रुटिक (स्वदेवियों के परिवार) के साथ भोग्य दिव्य भोगों को भोगने में समर्थ है ? [५-१ उ.] ( हे आर्यों!) यह अर्थ समर्थ नहीं । [ २ ] से केणट्ठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-नो पभू चमरे असुरिंदे चमरचंचाए रायहाणीए जाव विहरित्तए ? अज्जो ! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए माणवए चेइयखंभे वइरामएस गोलवट्टसमुग्गएसु बहूओ जिणसकहाओ सन्निक्खित्ताओ चिट्ठति, जाओ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो अन्नेसिं च बहूणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ वंदणिज्जो नम॑सणिज्जाओ पूयणिज्जाओ सक्कारणिज्जाओं सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जाओ भवंति, तेसिं पणिहाए नो पभू, से तेणट्ठेणं अज्जो ! एवं वुच्चइ–नो पभू चमरे असुरिंदे जाव राया चमरचंचाए जाव विहरित्तए । १. भगवतीसूत्र. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. ४, पृ. १८२१

Loading...

Page Navigation
1 ... 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669