Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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दशम शतक : उद्देशक-४
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(उत्कृष्ट-आचारी), उग्र-विहारी, संविग्न, संविग्नविहारी थे, परन्तु तत्पश्चात् वे पार्श्वस्थ, पार्श्वस्थविहारी, अवसन्न, अवसन्नविहारी, कुशील, कुशील विहारी, यथाच्छन्द और यथाच्छन्दविहारी हो गए। बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक-पर्याय का पालन कर, अर्धमासिक संलेखना द्वारा शरीर को (अपने आप को) कृश करके तथा तीस भक्तों का अनशन द्वारा छेदन (छोड़) करके, उस (प्रमाद - ) स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल के अवसर पर काल कर वे (तीसों ही) असुरकुमारराज असुरेनद्र चमर के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उत्पन्न हुए हैं।
[ ३ ] जप्पभिति च णं भंते ! ते कायंदगा तावत्तीसं सहाया गाहावती समणोवासगा चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसदेवत्ताए उववन्ना तप्पभितिं च णं भंते ! एवं वुच्चति 'चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा' ?
[५-३] (श्यामहस्ती गौतमस्वामी से ) – भगवन् ! जब से काकिन्दीनिवासी परस्पर सहायक तेतीस गृहपति श्रमणोपासक असुरराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक - देवरूप में उत्पन्न हुए हैं, क्या तभी से ऐसा कहा जाता है कि असुरराज असुरेन्द्र चमर के (ये) तेतीस देव त्रायस्त्रिशक देव हैं ? ( क्या इससे पहले उसके त्रायस्त्रिशक देव नहीं थें ? )
६. तए णं भगवं गोयमे सामहत्थिणा अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे संकिते कंखिए वितिगिच्छिए उट्ठाए उट्ठेइ, उ० २ सामहत्थिणा अणगारेणं सद्धिं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, ते० उ० २ समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वं० २ एवं वदासी—
[६] तब श्यामहस्ती अनगार के द्वारा इस प्रकार से पूछे जाने पर भगवान् गौतमस्वामी शंकित, कांक्षित एवं विचिकित्सित (अतिसंदेहग्रस्त ) हो गए। वे वहाँ से उठे और श्यामहस्ती अनगार के साथ जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आए । तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीरस्वामी को वन्दन-नमन किया और इस प्रकार पूछा
७. [१] अत्थि णं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा ? हंता, हत्थि ।
[७-१ प्र.] (गौतमस्वामी ने भगवान् से) भगवन् ! क्या असुरराज असुरेन्द्र चमर के त्रास्त्रिशक देव हैं ?
[७-१ उ.] हाँ, गौतम हैं।
[२] से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चड़, एवं तं चैव सव्वं (सु. ५-२ ) भाणियव्वं, जाव तावत्तीसगदेवत्ताए उववण्णा ।
[७-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि चमर के त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? इत्यादि पूर्ववत् (५-२ के अनुसार ) प्रश्न ।