Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
३. [ १ ] संवुडस्स णं भंते! अणगारस्स अवीयी पंथे ठिच्चा पुरतो रुवाइं निज्झायमाणस्स जाव तस्स णं भंते! किं इरियावहिया किरिया कज्जइ० ? पुच्छा ।
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गोया ! संवुड० जाव तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ ।
[३-१] भगवन्! अवीचिपथ (अकषायभाव) में स्थित संवृत अनगार को सामने के रूपों को निहारते हुए यावत् नीचे के रूपों का अवलोकन करते हुए क्या ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, अथवा साम्परायिकी क्रिया लगती है ?, इत्यादि प्रश्न ।
[३-१] गौतम! अकषायभाव में स्थित संवृत अनगार को उपर्युक्त रूपों का अवलोकन करते हुए ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, (किन्तु) साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती है।
[२] से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ ? जहा सत्तमसए सत्तमुद्देसए ( स. ७ उ. ७ सु. १ [२] ) जव सेणं अहासुत्तमेव रीयइ, से तेणट्ठेणं जाव नो संपराइया किरिया कज्जइ ।
[३-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ?
[ ३-२ उ.] गौतम ! सप्तम शतक के सप्तम उद्देशक में वर्णित (-जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न हो गए हों ) — ऐसा जो संवृत अनगार यावत् सूत्रानुसार आचरण करता है, (उसको ऐर्या पथिकी क्रिया लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती है।) इसी कारण मैं कहता हूँ, यावत् साम्परायिक क्रिया नहीं लगती ।
ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी क्रिया के अधिकारी - सप्तम शतक में प्रतिपादित जैन सिद्धान्त का अतिदेश करके यहाँ बताया गया है कि जो आगे-पीछे के, अगल-बगल के ऊपर-नीचे के रूपों का अवलोकन करते हुए चलता है, किन्तु जिसका कषायभाव व्युच्छिन्न नहीं हुआ है, ऐसे सूत्र - विरुद्ध प्रवृत्ति करने वाले संवृत अनगार को साम्परायिकी क्रिया लगती है, किन्तु जिसका कषायभाव व्युच्छिन्न हो गया है यावत् जो सूत्रानुसार प्रवृत्ति करता है, उस संवृत अनगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है। १-२
वीयपंथे : चार रूप : चार अर्थ - ( १ ) वीचिपथे— वीचि का यहाँ अर्थ है— सम्प्रयोग, अतः भावार्थ हुआ— कषायों और जीव का सम्बन्ध । वीचिमान् का अर्थ कषायवान् के और पथे का अर्थ 'मार्ग में' है । ( २ ) विचिपथं विचिर् धातु पृथक्भाव अर्थ में है । अत: भावार्थ हुआ जो यथाख्यातसंयम से पृथक् होकर कषायोदय के मार्ग में है । (३) विचितिपथे— जो रागादि विकल्पों के विचिन्तन के पथ में है और ( ४ ) विकृतिपथे — जिस स्थिति में सरागता होने से विरूपा कृति — क्रिया है, उस विकृति के मार्ग में ।
अवीयीपंथे — चाररूप : चार अर्थ - ( १ ) अवीचिपथे— अकषाय सम्बन्ध वाले मार्ग में, (२) अविचिपथे—यथाख्यातसंयम से अपृथक् मार्ग में, (३) अविचितिपथे— रागादि विकल्पों के अविचिन्तन पथ में और (४) अविकृतिपथे— अविकृतिरूप पथ में यानी वीतराग होने से जिस पथ में क्रिया अविकृत हो। १ - २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४९५ का सारांश
३.
भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४९६