Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[९-१] कदाचित् किसी भिक्षु ने किसी अकृत्यस्थान का सेवन कर लिया हो और उसके बाद उसके मन में यह विचार उत्पन्न हो कि श्रमणोपासक भी काल के अवसर पर काल करके किन्हीं देवलोकों में देवरूप में उत्पन्न हो जाते हैं, तो क्या मैं अणपन्त्रिक देवत्व भी प्राप्त नहीं कर सकूंगा ?, यह सोच कर यदि वह उस अकृत्य स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है तो उसके आराधना नहीं होती
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[२] से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कंते कालं करेइ अत्थि तस्स आराहणा ।
सेवं भंते! सेवं भंते ! त्ति.
॥ दस सए बीओ उद्देसओ समत्तो ॥ १०-२ ॥
[९-२] यदि वह (अकृत्यसेवी साधु) उस अकृत्यस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
विवेचन—आराधक - विराधक भिक्षु — प्रस्तुत तीन सूत्रों (७-८-९) में आराधक और विराधक भिक्षु की ६ कोटियां बताई गई हैं—
(१) अकृत्यस्थान का सेवन करके आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना ही काल करने वाला : अनाराधक (विराधक) ।
(२) अकृत्यस्थान का सेवन करके आलोचना - प्रतिक्रमण कर काल करने वाला : आराधक ।
(३) अकृत्यस्थानसेवी, अन्तिम समय में आलोचनादि करके प्रायश्चित स्वीकार करने की भावना करने वाला, किन्तु आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना ही काल करने वाला : अनाराधक ।
(४) अकृत्यस्थानसेवी, अन्तिम समय में आलोचनादि करने का भाव और आलोचना प्रतिक्रमण करके काल करने वाला : आराधक ।
(५) अकृत्यस्थानसेवी, श्रमणोपासकवत् देवगति प्राप्त कर लूंगा, इस भावना से आलोचनादि किये बिना ही काल करने वाला : अनाराधक ।
(६)अकृत्यस्थानसेवी, श्रमणोपासकवत् देवगति प्राप्ति की भावना, किन्तु आलोचनादि करके काल करने वाला : आराधक ।
॥ दशम शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पण) भा. २, पृ. ४८९-४९०