Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 599
________________ ५६८ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कोष्ठक नामक उद्यान था, उसका और वनखण्ड तक का वर्णन (जान लेना चाहिए)। ८९. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था। वण्णओ। पुण्णभद्दे चेइए।वण्णओ। जाव पुढविसिलावट्टओ। [८९] उस काल और उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी। उसका वर्णन (औपपातिकसूत्र से जान लेना चाहिए।) वहाँ पूर्णभद्र नामक चैत्य था। उसका वर्णन (समझ लेना चाहिए) तथा यावत् उसमें पृथ्वीशिलापट्ट था। ९०. तए णं जमाली अणगारे अन्नया कयाइ पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव सावत्थी नयरी जेणेव कोट्ठए चेइए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हइ, अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिणिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। [९०] एक बार वह जमालि अनगार, पांच सौ अनगारों के साथ संपरिवृत्त होकर अनुक्रम से विचरण करता हुआ और ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ श्रावस्ती नगरी में जहाँ कोष्ठक उद्यान था, वहाँ आया और मुनियों के कल्प के अनुरूप अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप के द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ विचरण करने लगा। ९१. तए णं सपणे भगवं महावीरे अन्नया-कयाइ पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नगरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हइ, अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।। [९१] उधर श्रमण भगवान् महावीर भी एक बार अनुक्रम से विचरण करते हुए, यावत् सुखपूर्वक विहार करते हुए जहाँ चम्पानगरी थी और पूर्णभद्र नामक चैत्य था, वहाँ पधारे, तथा श्रमणों के अनुरूप अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण कर रहे थे। विवेचन-श्रावस्ती में जमालि और चम्पा में भगवान् महावीर प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. ८८ से ९१ तक) में जमालि का भगवान् महावीर से पृथक् विहार करके श्रावस्ती में पहुंचने का तथा भगवान् महावीर का चम्पा में पधारने का वर्णन है। विशेषार्थ-अहापडिरूवं—मुनियों के कल्प के अनुरूप । उग्गहं—अवग्रह-यथापर्याप्त आवासस्थान तथा पट्टे-चौकी आदि की याचना करके ग्रहण करना।' जमालि अनगार के शरीर में रोगातंक की उत्पत्ति ९२. तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स तेहिं अरसेहि य विरसेहि य अंतेहि य पंतेहि य लूहेहि १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १, पृ. ४७६ २. भगवती.सूत्र, तृतीय खण्ड (पं. भगवानदास दोशी); पृ. १७९

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