Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र और जिन साधुओं ने जमालि-प्रतिपादित सिद्धान्त पर श्रद्धा नहीं की, वे वहाँ से विहार करके भगवान् की सेवा में लौट गए।
'चलमान चलित' : भगवन् का सिद्धान्त है—इसका सयुक्तिक विवेचन भगवतीसूत्र के प्रथम शतक के प्रथम उद्देशक में कर दिया गया है। जमालि अनगार ने इस सिद्धान्त के विरुद्ध एकान्तदृष्टि से प्ररूपणा की, इसलिए यह सिद्धान्त अयथार्थ है। इसका विशेष विवेचन विशेषावश्यकभाष्य में है।
विशेषार्थ-चलमाणे चलिए जो चल रहा हो, वह चला। उवसंपज्जित्ताणं—आश्रय करके (निश्राय में) । अत्थेगइया-कोई-कोई-कितने ही। जमालि द्वारा सर्वज्ञता का मिथ्या दावा
९८. तए णं से जमाली अणगारे अन्नया कयाइ ताओ रोगायंकाओ विप्पमुक्के हढे जाए अरोए बलियसरीरे सावत्थीओ नयरीओ कोट्ठयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव चंपा नयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी-जहा णं देवाणुप्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा निग्गंथा छउमत्था भवेत्ता छउमत्थावक्कमणेणं अवक्कंता, णो खलु अहं तहा छउमत्थे भवित्ता छउमत्थावक्कमणेणं अवक्कंते, अहं णं उप्पन्नणाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अवक्कंते।
[९८] तदनन्तर किसी समय जमालि अनगार उस (पूर्वोक्त) रोगातंक से मुक्त और हष्ट (पुष्ट) हो गया तथा नीरोग और बलवान् शरीर वाला हुआ, तब श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से निकला और अनुक्रम से विचरण करता हुआ एवं ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ, जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, जिसमें कि श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, उनके पास आया। वह भगवान् महावीर से न तो अत्यन्त दूर
और न अतिनिकट खड़ा रह कर भगवान् से इस प्रकार कहने लगा—जिस प्रकार आप देवानुप्रिय के बहुत से शिष्य छद्मस्थ रह कर छद्मस्थ अवस्था में ही (गुरुकुल से) निकल कर विचरण करते हैं, उस प्रकार मैं छद्मस्थ रह कर छद्मस्थ अवस्था में निकल कर विचरण नहीं करता, मैं उत्पन्न हुए केवलज्ञान-केवलदर्शन को धारण करने वाला अर्हत्, जिन, केवली हो कर केवली—(अवस्था में निकल कर केवली-) विहार से विचरण कर रहा हूँ, अर्थात् मैं केवली हो गया हूँ। १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १, पृ. ४७८ २. (क) भगवतीसूत्र प्रथम खण्ड, श. १, (युवाचार्य श्री मधुकरमुनि), पृ. १६-१७
(ख) विशेषावश्यकभाष्य, निह्नववाद (ग) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४८७-८८ ३. भगवती. भा. ४ (पं. घेवरचन्दजी), पृ. १७५७