Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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नवम शतक : उद्देशक-३३
५६९ य तुच्छेहि य कालाइक्कंतेहि य पमाणाइक्कंतेहि य सीतएहि य पाण-भोयणेहिं अन्नया कयाइ सरीरगंसि विउले रोगातंके पाउब्भूए-उज्जले तिउले पगाढे कक्कसे कडुए चंडे दुक्खे दुग्गे तिव्वे दुरहियासे पित्तज्जरपरिगतसरीरे दाहवक्कंतिए यावि विहरइ।
[९२] उस समय जमालि अनगार को अरस, विरस, अन्त प्रान्त, रूक्ष और तुच्छ तथा कालातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त एवं ठंडे पान (पेय पदार्थों) और भोजनों (भोज्य पदार्थों) (के सेवन) से एक बार शरीर में विपुल रोगातंक उत्पन्न हो गया। वह रोग उज्ज्वल, विपुल, प्रगाढ़, कर्कश, कटुक, चण्ड, दुःख रूप, दुर्ग (कष्टसाध्य), तीव्र और दुःसह था। उसका शरीर पित्तज्वर से व्याप्त होने के कारण दाह से युक्त हो रहा था।
विवेचन—जमालि, महारोगपीड़ित—जमालि अनगार को रुक्ष, अन्त, प्रान्त, नीरस आदि प्रतिकूल आहार-पानी करने के कारण महारोग उत्पन्न हो गया, जिसके फलस्वरूप उसके सारे शरीर में जलन एवं दाहज्वर के कारण असह्य पीड़ा हो उठी।'
कठिन शब्दों का भावार्थ-अरसेहि—हींग आदि के बघार बिना का, बिना रसवाले-बेस्वाद। विरसेहि-पुराने होने से खराब रस वाले-विकृत रस वाले। अन्तेहिं– अरस होने से सब धान्यों से रद्दी (अन्तिम) धान्य-वाल, चने आदि। पंतेहि-बचा-खुचा बासी आहार । लूहेहि-रूक्ष । तुच्छेहि-थोड़ेसे या हल्की किस्म के। कालाइक्कंतेहि-दो अर्थ : जिसका काल व्यतीत हो चुका हो ऐसा आहार, अथवा भूख-प्यास का समय बीत जाने पर किया गया आहार । पमाणाइक्कंतेहि-भूख-प्यास की मात्रा के अनुपात में जो आहार न हो। सीतएहि-ठंडा आहार। विउले–विपुल-समस्त शरीर में व्याप्त। पाउब्भूएउत्पन्न हुआ। रोगातंके-रोग-व्याधि और आतंक-पीड़ाकारी या उपद्रव। उज्जले- उत्कट ज्वलन(दाह) कारक। पगाढे तीव्र या प्रबल। कक्कसे-कठोर या अनिष्टकारी। चंडे-रौद्र-भयंकर । दुक्खेदुःखरूप । दुग्गे–कष्टसाध्य । दुरहियासे दुस्सह । पित्तज्जरपरिगयसरीरे—पित्तज्वर से व्याप्त शरीर वाला। दाहवक्कंतिए-दाह (जलन) उत्पन्न हुआ। रुग्ण जमालि को शय्यासंस्तारक के निमित्त से सिद्धान्त-विरुद्ध-स्फुरणा और प्ररूपणा
९३. तए णं से जमाली अणगारे वेयणाए अभिभूए समाणे समणे णिग्गंथे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी—तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! मम सेज्जासंथारगं संथरेह।
[९३] वेदना से पीड़ित जमालि अनगार ने तब (अपने साथी) श्रमण-निर्ग्रन्थों को बुलाकर उनसे कहा—हे देवानुप्रियो ! मेरे सोने (शयन) के लिए तुम संस्तारक (बिछौना) बिछा दो।
९४. तए णं ते समणा णिग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एयमढें विणएणं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता जमालिस्स अणगारस्स सेज्जासंथारगं संथरेंति। १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १, पृ. ४७६ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४८६