Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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नवम शतक : उद्देशक-३३ ६६ सू. तक) में जमालिकुमार तथा उसकी माता, धायमाता तथा अन्य तरुणियों के शिविका पर चढ़ कर यथास्थान स्थित हो जाने का वर्णन है।'
कठिन शब्दों का विशेषार्थ—सीयं अणुप्पदाहिणीकरेमाणी : दो अर्थ-(१) शिविका की प्रदक्षिणा करते हुए (२) दक्षिण की ओर से शिविका पर चढी। पुरत्थाभिमुहे- पूर्व की ओर मुख करके। सण्णिसण्णे-बैठा। भद्दासणवरंसि—उत्तम भद्रासन पर। केसालंकारेणं इत्यादि का भावार्थ- केश, वस्त्र, माला और आभूषणों को यथास्थान साजसज्जा से युक्त किया। पडिग्गहं—पात्र । वामे पासे—बाएं पार्श्व में। पिट्ठओ-पृष्ठभाग में-पीठ के पीछे। सिंगारागार-शृंगार का घर अथवा शृंगारप्रधान आकृति । विलासकलिया-विलास-नेत्रजनितविकार से युक्त। कणग-पीला सोना। तवणिज्ज–लाल सोना। महरिय–महामूल्य। सन्निकासाओ—समान। पगासं—समान।आयवत्तं—छत्र । सलीलं-लीला सहित। धारेमाणी—धारण करती हुई। वीयमाणीओ-दुलाती हुई। संगय-गय–संगत–व्यवस्थित गति (चाल) इत्यादि। विमलसलिलपुण्णं-जल से पूर्ण । मत्तगय-महामुहाकितिसमाणं-उन्मत्त गज के मुख की स्वच्छ आकृति के समान। भिंगारं-कलश या झारी। उत्तरपुरस्थिमेणं-उत्तर-पूर्व दिशा में। दाहिणपुरस्थिमेणं-दक्षिणपूर्व दिशा (आग्नेयकोण) में। चित्तं कणगदंडं-विचित्र स्वर्ण दण्ड (हत्थे) वाले। तालयंट- ताड़पत्र के पंखे को।
६७. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्त पिया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, कोडुंबियपुरिसे सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सरिसयं सरित्तयं सरिव्वयं सरिसलावण्णरूव-जोव्वणगुणोववेयं एगाभरणवसणगहियनिज्जोयं कोडुंबियवरतरुणसहस्सं सद्दावेह।
[६७] इसके पश्चात् क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार कहा–'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही एक सरीखे, समान त्वचा वाले, समान वय वाले, समान लावण्य, रूप और यौवन-गुणों से युक्त, एक सरोखे आभूषण, वस्त्र और परिकर धारण किये हुए एक हजार श्रेष्ठ कौटुम्बिक तरुणों को बुलाओ।'
६८. तए णं कोडुंबियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सरिसयं सरित्तयं जाव सद्दावेंति ।
[६८] तब वे कौटुम्बिक पुरुष स्वामी के आदेश को यावत् स्वीकार करके शीघ्र ही एक सरीखे, समान त्वचा वाले यावत् एक हजार श्रेष्ठ कौटुम्बिक तरुणों को बुला लाए।
६९. तए णं ते कोडुंबियपुरिस ( ? तरुणा)जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणो कोडुंबियपुरिसेहिं सद्दाविया समाणा हट्ठतुट्ठ० ण्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता एगाभरण१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १, पृ. ४६८-४६९ २. (क) भगवती. भाग ४ (पं. घेवरचन्दजी), पृ. १७४०-१७४२
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४७८