Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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नवम शतक : उद्देशक-३३
५३९ स्वभाव वाला है। पहले या पीछे इसे अवश्य ही छोड़ना पड़ेगा। अत: हे माता-पिता ! यह कौन जानता है कि हममें से कौन पहले जाएगा (मरेगा) और कौन पीछे जाएगा ? इसलिए हे माता-पिता ! मैं चाहता हूँ कि आपकी अनुज्ञा मिल जाए तो मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास मुंडित होकर यावत् प्रव्रज्या अंगीकार कर लूं।
विवेचन—जमालि के वैराग्यसूचक उद्गार–प्रस्तुत में जमालि ने माता-पिता के समक्ष विविध उपमाओं द्वारा जीवन की क्षणभंगुरता एवं अनित्यता का सजीव चित्र खींचा है।
कठिन शब्दों का भावार्थ-अणेगजाई-जरा-मरण-रोग-सरीर-माणस-पकाम-दुक्खवेयणवसण-सतोवद्दवाभिभूए—अनेक जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, शरीर एवं मन सम्बन्धी अत्यन्त दुःखों की वेदना
और सैकड़ों व्यसनों (कष्टों) एवं उपद्रवों से अभिभूत (ग्रस्त) है। संझब्भरागसरिस-संध्या-कालीन मेघों के रंग जैसा है। जलबुब्बुदसमाणे-जल के बुलबुलों के समान । सुविणगदंसणोवमे-स्वप्न-दर्शन के तुल्य। विज्जुलयाचंचले—विद्युत-लता की चमक के समान चंचल है। सडण-पडण-विद्धंसणधम्मेसड़ने, पड़ने और विध्वंस होने के धर्म-स्वभाव वाला है। अवस्सविप्पजहियव्वे भविस्सइ–अवश्य ही छोड़ना पड़ेगा।
३७. तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो एवं वयासी—इमं च ते जाया! सरीरगं पविसिट्ठरूवं लक्खण-वंजण-गुणोववेयं उत्तमबल-वीरिय-सत्तजुत्तं विण्णाणवियक्खणं ससोहग्गगुणसमुस्सियं अभिजायमहक्खमं विविहवाहिरोगरहियं निरुवहयउदत्तलट्ठपंचिंदियपहुं, पढमजोव्वणत्थं अणेगउत्तमगुणेहिं जुत्तं, तं अणुहोहि ताव जाव जाया! नियगसरीररूवसोहग्गजोव्वणगुणे, तओ पच्छा अणुभूयनियगसरीररूवसोभग्गजोव्वणगुणे अम्हेहिं कालगएहि समाणेहिं परिणयवये वड्डियकुलवंसतंतुकजम्मि निरवयक्के समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिसि।
[३७] यह बात सुन कर क्षत्रियकुमार जमालि से उसके माता-पिता ने इस प्रकार कहा—हे पुत्र! तुम्हारा यह शरीर विशिष्ट रूप, लक्षणों, व्यंजनों (मस, तिल और चिह्नों) एवं गुणों से युक्त है, उत्तम बल, वीर्य
और सत्त्व से सम्पन्न है, विज्ञान में विचक्षण है, सौभाग्य-गुण से उन्नत है, कुलीन (अभिजात) है, महान् समर्थ (क्षमतायुक्त) है, विविध व्याधियों और रोगों से रहित है, निरुपहत, उदात्त, मनोहर और पांचों इन्द्रियों की पटुता से युक्त है तथा प्रथम (उत्कृष्ट) यौवन अवस्था में है, इत्यादि अनेक उत्तम गुणों से युक्त है। इसलिए, हे पुत्र ! जब तक तेरे शरीर में रूप, सौभाग्य और यौवन आदि उत्तम गुण हैं, तब तक तू इनका अनुभव (उपभोग) कर। इन सब का अनुभव करने के पश्चात् हमारे कालधर्म प्राप्त होने पर जब तेरी उम्र परिपक्व हो जाए और (पुत्र-पौत्रादि से) कुलवंश की वृद्धि का कार्य हो जाए, तब (गृहस्थ-जीवन से) निरपेक्ष हो कर श्रमण भगवान् महावीर के पास मुण्डित हो कर अगारवास छोड़ कर अनगारधर्म में प्रव्रजित होना। १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. १ पृ. ४६१ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४६८