Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 569
________________ ५३८ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दासियों ने माता की मूर्छा विविध उपचारों से दूर की। परिजनों ने सान्त्वना दी, किन्तु फिर भी मोह-ममतावश जमालि को समझाने लगी कि हमारे जीवित रहने तक तुम दीक्षा मत लो। कठिन शब्दों का अर्थ—ससंभमोयत्तियाए-घबराहट के कारण छटपटाती हुई या गिरती हुई। कंचणभिंगारमुहविणिग्गय-सीलयजल-विमलधारा-पसिच्चमाण-निव्वविय-गायलट्ठी–सोने के कलश के मुख से निकलती हुई शीतल एवं विमल जलधारा से सिंचन करने से देह (गात्रयष्टि) स्वस्थ हुई। उक्खेवग-तालियंट-वीयणगजणियवाएणं सफुसिएणं-उत्क्षेपक (बांस से निर्मित पंखे) तथा ताड़ के पंखे से पानी के फुहारों से युक्त हवा करने से। अंतउरपरिजणेणं आसासिया समाणी—अन्त:पुर के परिजन से आश्वस्त की गई। कंदमाणी-चिल्लाती हुई। वेसासिए—विश्वासपात्र । थेज्जे-स्थिरता के योग्य । सम्मए–अनेक कार्यों में सम्मति देने योग्य । अणुमए– कार्य के अनुरूप या कार्य में विघात आने के बाद सलाह देने योग्य । बहुमए—बहुत से कार्यों में मान्य या बहुमान्य। रयणं- रत्नरूप या (मनो) रंजक है। जीवियउसविये— जीवित-उत्सवरूप अथवा जीवन के उच्छ्वास (प्राण) रूप। अच्छाहि-रहो या ठहरो। परिणयवये—परिपक्व अवस्था होने पर। वड्डियकुलवंसतन्तुकज्जम्मि–कुलवंशरूप तन्तु-पुत्रपौत्रादि से कुलवंश की वृद्धि का कार्य होने पर। णिरवयक्खे- गृहस्थकार्यों से निरपेक्ष होने पर। ३६. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासी–तह विणं तं अम्म! ताओ ! जंणं तुब्भे मम एवं वदह तुम सि णं जाया! अम्हं एगे पुत्ते इटे कंते तं चेव जाव पव्वइहिसि, एवं खलु अम्म! ताओ! माणुस्सए भवे अणेगजाइ-जरा-मरण-रोग-सरीर-माणसपकाम-दुक्खवेयण-वसणसतोवद्दवाभिभूए अधुवे अणितिए असासए संझब्भरागसरिसे जलबुब्बुदसमाणे कुसग्गजलबिंदुसन्निभे सुविणगदंसणोवमे विन्जुलयाचंचले अणिच्चे सडण-पडण-विद्धंसणधम्मे पुव्विं वा पच्छा वा अवस्सविप्पजहियव्वे भविस्सइ, से केस णं जाणइ अम्म! ताओ! के पुट्विं गमणयाए ? के पच्छा गमणयाए ? तं इच्छामि णं अम्म! ताओ ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइत्तए। __ [३६] तब क्षत्रियकुमार जमालि ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा—हे माता-पिता ! अभी जो आपने कहा कि हे पुत्र ! तुम हमारे इकलौते पुत्र हो, इष्ट, कान्त आदि हो, यावत् हमारे कालगत होने पर प्रव्रजित होना, इत्यादि (उस विषय में मुझे यह कहना है कि) माताजी ! पिताजी ! यों तो यह मनुष्य-जीवन जन्म, जरा, मृत्यु, रोग तथा शारीरिक और मानसिक अनेक दुःखों की वेदना से और सैकड़ों व्यसनों (कष्टों) एवं उपद्रवों से ग्रस्त है, जल-बुबुद के समान है, कुश की नोक पर रहे हुए जलबिन्दु के समान है, स्वप्नदर्शन के तुल्य है, विद्युत-लता की चमक के समान चंचल और अनित्य है, सड़ने, पड़ने, गलने और विध्वंस होने के १. वियाहपण्णत्ति. (मू. पा. टि.) भा. १, पृ. ४६० २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४६८ ३. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४६८

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