Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र फिर इस कल्याण (सुखरूप पुण्यफल) का अनुभव करके और कुलवंशतन्तु की वृद्धि करने के पश्चात् यावत् तू प्रव्रजित हो जाना।
४२. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासी तहा—वि णं तं अम्म ! ताओ ! जंणं तुब्भे ममं एवं वदह–इमे य ते जाया! अज्जग-पज्जग० एवं पव्वइहिसि एवं खलु अम्म! ताओ! हिरण्णे य जाव सावएज्जे अग्गिसाहिए चोरसाहिए रायसाहिए मच्चुसाहिए दाइयसाहिए अग्गिसामन्ने जाव दाइयसामन्ने अधुवे अणितिए असासए पुव्विं वा पच्छा वा अवस्सविप्पजहियव्वे भविस्सइ, से केस णं जाणइ० तं चेव जाव पव्वइत्तए।
[४२] इस पर क्षत्रियकुमार जमालि ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा—हे माता-पिता! आपने जो यह कहा कि तेरे पितामह, प्रपितामह आदि से प्राप्त द्रव्य के दान, भोग आदि के पश्चात् यावत् प्रव्रज्या ग्रहण करना आदि, किन्तु हे माता-पिता ! यह हिरण्य, सुवर्ण यावत् सारभूत द्रव्य अग्नि-साधारण, चोरसाधारण, राज-साधारण, मृत्यु साधारण, एवं दायाद-साधारण (अधीन) है, तथा अग्नि-सामान्य यावत् दायाद-सामान्य (अधीन) है। यह (धन) अध्रुव है, अनित्य है और अशाश्वत है। इसे पहले या पीछे एक दिन अवश्य छोड़ना पड़ेगा। अत: कौन जानता है कि कौन पहले जाएगा और कौन पीछे जाएगा? इत्यादि पूर्ववत् कथन जानना चाहिए, यावत् आपकी आज्ञा प्राप्त हो जाए तो मेरी दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा है।
विवेचन-माता-पिता द्वारा द्रव्य के दान-भोगादि का प्रलोभन और जमालि द्वारा धन की पराधीनता और अनित्यता का कथन—प्रस्तुत ४१-४२ वें सूत्र में माता-पिता द्वारा प्रचुर धन के उपयोग का प्रलोभन दिया गया है, जबकि जमालि ने धन के प्रति वैराग्यभाव प्रदर्शित किया है।
__ कठिन शब्दों का भावार्थ-अजयआर्य-पितामह, पज्जय-प्रार्य-प्रपितामह, पिउपज्जयपिता के प्रपितामह । दूसे—दूष्य-बहुमूल्य वस्त्र । संतसारसावएज्जे-स्वायत्त विद्यमान सारभूत स्वापतेयधन। आसत्तमाओ कुलवंसाओ-सात कुलवंशों (पीढी) तक। अलाहि-पर्याप्त। पकामं—प्रचुर। परिभाएउं—विभाजित करने के लिए। अग्गिसाहिए-अग्नि द्वारा साधारण या साध्य-नष्ट हो जाने वाला। दाइय-बन्धु आदि भागीदार । सामन्ने—सामान्य-साधारण।
४३. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्म-ताओ जाहे नो संचाएंति विसयाणुलोमाहिं बहूहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य सन्नवणाहि य विण्णवणाहि य आघवित्तए वा पण्णवित्तए वा सन्नवित्तए वा विण्णवित्तए वा ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभयुव्वेवणकरीहिं पण्णवणाहिं पण्णेवेमाणा एवं वयासी–एवं खलु जाया! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवले जहा आवस्सए' १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मू.पा. टिप्पण) भा. १, पृ. ४६३ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४७० ३. आवश्यकसूत्रगत पाठ-"सल्लगत्तणे...सिद्धिमग्गे...मुत्तिमग्गे...निजाणमग्गे....निव्वाणमग्गे....अवितहे....
अविसंधि.... सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे.....एत्थं ठिया जीवा सिझंति, बुझंति, मुच्चंति, परिनिव्वायंति।" ।