Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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नवम शतक : उद्देशक- ३३
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अपलक दृष्टि से देखने लगी । इस विषय की गौतमस्वामी की शंका का समाधान करते हुए भगवान् ने रहस्योद्घाटन किया—देवानन्दा मातां है। प्रथम गर्भाधानकाल में मैं उसके गर्भ में रहा, इसलिए पुत्रस्नेह रूप अनुरागवश यह सब होना स्वाभाविक है।
कठिन शब्दों का अर्थ — आगयपण्हया — आगतप्रश्रवा - स्तनों में दूध आ गया । पप्फुयलोयणाप्रस्फुटितलोचना– हर्ष से नयन विकसित हो गए। संवरियवलयबाहा— हर्ष से फूलती हुए बांहों को बाजूबंदों ने रोका। कंचुयपरिक्खित्ता — कंचुकी विस्तृत हो गई। धाराहयकलंबगपिव—मेघधारा से विकसित कदम्बपुष्प के समान । समूससियरोमकूवा — रोमकूप विकसित हो गए। अम्मगा— अम्मा-माता । अत्तए — आत्मज - पुत्र । देहमाणी— देखती हुई ।
ऋषभदत्त द्वारा प्रव्रज्याग्रहण एवं निर्वाणप्राप्ति
१५. तए णं समणे भगवं महावीरे उसभदत्तस्स माहणस्स देवाणंदाए य माहणीए तीसे य महातिमहालियाए इसिपरिसाए जाव' परिसा पडिगया ।
[१५] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने ऋषभदत्त ब्राह्मण और देवानन्दा ब्राह्मणी तथा उस अत्यन्त बड़ी ऋषिपरिषद् आदि को धर्मकथा कही, यावत् परिषद वापस चली गई।
१६. तए णं से उसभदत्ते माहणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठे उट्ठेइ, उट्ठाए, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आया० जाव नमंसित्ता एवं वयासी— 'एवमेयं भंते! तहमेयं भंते !' जहा खंदओ (स.. २ उ. १ सु. ३४ ) जाव से जहेयं तुब्भे वदह त्ति कट्टु उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, उत्तरपुरित्थमं दिसीभागं अवक्कमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, सयमेव आभरण - मल्लालंकारं ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं जाव नमंसित्ता एवं वयासी—आलित्ते णं भंते! लोए, पलित्ते णं भंते! लोए, एवं जहा खंदओ (स. २ उ. १ सु. ३४ ) तहेव पव्वइओ जाव सामाइय-माझ्याई इक्कारस अंगाईं अहिज्जइ जाव बहूहिं चउत्थ-छट्ठ- ट्ठम- दसम जाव विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूइं वासाइं सामण्णपरियायं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सट्टिं भत्ताईं अणसणाए छेदेइ, सट्ठि भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता
१. भगवती. भा. ४, (पं. घेव.), पृ. १७००
२. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४६०
३. 'जाव' पद से यहाँ — 'मुणिपरिसाए, जइपरिसाए, अणेगसयाए अणेगसयविंदपरिवाराए', इत्यादि पाठ समझना चाहिए।
४. पाठान्तर — 'आलित्तपलित्ते णं भंते ! लोए जराए मरणेण य, एवं एएणं कमेणं इमं जहा खंदओ ।'