Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सप्तम शतक : उद्देशक - १०
वाला आदि होता है ?
[१९-२ उ.] कालोदायी ! उन दोनों पुरुषों में से जो पुरुष अग्निकाय को जलाता है, वह पृथ्वीकाय का बहुत समारम्भ (वध) करता है, अप्काय का बहुत समारम्भ करता है, तेजस्काय का अल्प समारम्भ करता है, वायुकाय का बहुत समारम्भ करता । जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है, वह पृथ्वीकाय का अल्प समारम्भ करता है, अप्काय का अल्प समारम्भ करता है, वायुकाय का अल्प समारम्भ करता है, वनस्पतिकाय का अल्प समारम्भ करता है एवं त्रसकाय का भी अल्प समारम्भ करता है, किन्तु अग्निकाय का बहुत समारम्भ करता है। इसलिए हे कालोदायी ! जो पुरुष अग्निकाय को जलाता है, वह पुरुष महाकर्म वाला आदि है और जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है, वह अल्पकर्म वाला आदि है।
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विवेचन – अग्निकाय को जलाने और बुझाने वालों में महाकर्म आदि और अल्पकर्म आदि से संयुक्त कौन और क्यों ? - प्रस्तुत सूत्र (१९) में कालोदायी द्वारा पूछे गए पूर्वोक्त प्रश्न का भगवान् द्वारा दिया गया सयुक्तिक समाधान अंकित है।
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अग्नि जलाने वाला महाकर्म आदि से युक्त क्यों ? - अग्नि जलाने से बहुत-से अग्निकायिक जीवों की उत्पत्ति होती है, उनमें से कुछ जीवों का विनाश भी होता है। अग्नि जलाने वाला पुरुष अग्निकाय के अतिरिक्त अन्य सभी कायों का विनाश (महारम्भ) करता है। इसलिए अग्नि जलाने वाला पुरुष ज्ञानावरणीय आदि महाकर्म उपार्जन करता है, दाहरूप महाक्रिया करता है, कर्मबंध का हेतुभूत महा-आस्रव करता है और जीवों को महावेदना उत्पन्न करता है; जबकि अग्नि बुझाने वाला पुरुष एक अग्निकाय के अतिरिक्त अन्य सब कायों का अल्प आरम्भ करता है। इसलिए वह जलाने वाला पुरुष अल्प-कर्म, अल्प- क्रिया, अल्प-आस्रव और अल्प-वेदना से युक्त होता है ।"
प्रकाश और ताप देने वाले अचित प्रकाशमान पुद्गलों की प्ररूपणा
२०. अत्थि णं भंते ! अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति उज्जोवंति तवेंति पभासेंति ? हंता, अत्थि ।
२० प्र.] भगवन् ! क्या अचित पुद्गल भी अवभासित (प्रकाशयुक्त) होते हैं, वे वस्तुओं को उद्योतित करते हैं, तपाते हैं (या स्वयं तपते ) हैं और प्रकाश करते हैं ?
[२० उ.] हाँ कालोदायी ! अचित्त पुद्गल भी यावत् प्रकाश करते हैं।
२१. कतरे णं भंते! ते अचित्ता पोग्गला ओभासंति जाव पभासंति ?
कालोदाई ! कुद्धस्स अणगारस्स तेयलेस्सा निसट्ठा समाणी दूरं गंता दूरं निपतति, देसं गंता देसं निपतति, जहिं जहिं च णं सा निपतति तर्हि तर्हि च णं ते अचित्ता वि पोग्गला ओभार्सेति जाव पभासेंति । एते णं कालोदायी ! ते अचित्ता वि पोग्गला ओभार्सेति जाव पभासेंति ।
[ २१ प्र.] भगवन् ! अचित्त होते हुए भी कौन-से पुद्गल अवभासित होते हैं, यावत् प्रकाश करते हैं ? १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक ३२७