Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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नवम शतक : उद्देशक-३१
४४९ क्रमशः क्षीण होते-होते और सम्यग्दर्शन के पर्याय क्रमश: बढ़ते-बढ़ते वह 'विभंग' नामक अज्ञान, सम्यक्त्वयुक्त होता है और शीघ्र अवधि (ज्ञान) के रूप में परिवर्तित हो जाता है।
विवेचन—'तस्स छठंछट्टेणं' : आशय—जो व्यक्ति केवली आदि से बिना सुने ही केवलज्ञान उपार्जन कर लेता है, ऐसे किसी जीव को किस क्रम में अवधिज्ञान प्राप्त होता है, उसकी प्रक्रिया यहाँ बताई गई है। छठेंछट्टेणं' यहाँ यह बताने के लिए कहा गया है कि प्रायः लगातार बेले-बेले की तपस्या करने वाले बालतपस्वी को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है।'
ईहापोहमग्गणगवेसणं : ईहा-विद्यमान पदार्थों के प्रति ज्ञानचेष्टा। अपोह—यह घट है, पट नहीं, इस प्रकार विपक्ष के निराकरणपूर्वक वस्तुतत्त्व का विचार । मार्गण-अन्वयधर्म-पदार्थ में विद्यमान गुणों का आलोचन (विचार)। गवेषण-व्यतिरेक (धर्म) का निराकरण रूप आलोचन (विचार)।
समुत्पन्न विभंगज्ञान की शक्ति प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि वह बालतपस्वी विभंगज्ञान प्राप्त होने पर जीवों को भी कथंचित् ही जानता है, साक्षात् नहीं, क्योंकि विभंगज्ञानी मूर्तपदार्थों को ही जान सकता है, अमूर्त को नहीं। इसी प्रकार पाषण्डस्थ यानी व्रतस्थ, आरम्भ-परिग्रहयुक्त होने से महान् संक्लेश पाते हुए जीवों को भी जानता है और अल्पमात्रा में परिणामों की विशुद्धि होने से परिणामविशुद्धिमान् जनों को भी जानता है।
विभंगज्ञान अवधिज्ञान में परिणत होने की प्रक्रिया- इससे पूर्व प्रकृतिभद्रता, विनम्रता, कषायों की उपशान्तता, कामभोगों में अनासक्ति, शुभ अध्यवसाय एवं सुपरिणाम आदि के कारण विभंगज्ञानी होते हुए भी परिणामों की विशुद्धि होने से सर्वप्रथम सम्यक्त्वप्राप्ति, फिर श्रमणधर्म पर रुचि, चारित्र को अंगीकार और फिर साधुवेष को स्वीकार करता है। सम्यक्त्वप्राप्ति किस प्रकार होती है ? इसकी प्रक्रिया बताने के लिए अन्त में पाठ दिया गया है-...... विभंगे अण्णाणे सम्मत्तं परिग्गहिए.....। उसका आशय यह है कि चारित्र प्राप्ति से पहले वह भूतपूर्व विभंगज्ञानी सम्यक्त्व प्राप्त करता है और सम्यक्त्व प्राप्त होते ही उसका विभंगज्ञान अवधिज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। उसके बाद की प्रक्रिया है-श्रमणधर्म की रुचि, चारित्रधर्मस्वीकार, वेशग्रहण आदि, जो कि मूलपाठ में पहले बता दी गई है।
'अणिक्खित्तेणं' आदि शब्दों का भावार्थ अणिक्खित्तेणं लगातार बीच में छोड़े बिना। पगिज्झिय-रख कर । आयावणभूमीए—आतापना लेने के स्थान में। पगइपतणुकोह....-प्रकृति से, स्वभाव से ही पतले क्रोधादि कषाय। मिउमद्दवसंपण्णयाए-अत्यन्त मृदुता-कोमलता से सम्पन्न होने के कारण। अल्लीणयाए—अलीनता-अनासक्ति-कामभोगों के प्रति गृद्धिरहितता। अण्णया कयावि-अन्य
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४३३ २. वही अ. वृत्ति, पत्र ४३३ ३. वही अ. वृत्ति, पत्र ४३३ ४. भगवती. अ. वृत्ति पत्र ४३३-४३४