Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र होते हैं, असत् वैमानिकों में नहीं। (इसी प्रकार) सत् नैरयिकों में से उद्वर्तते हैं, असत् नैरयिकों में से नहीं। यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं असत् वैमानिकों में से नहीं।
[२] से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ सओ नेरइया उववजंति, नो असओ नेरइया उववजंति, जाव सओ वेमाणिया चयंति, नो असओ वेमाणिया चयंति ?
से नूणं गंगेया ! पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं सासए लोए बुइए, अणाईए अणवयग्गे जहा पंचमे सए (स. ५ उ. ९ सु. १४ [२]) जाव जे लोक्कड़ से लोए, से तेणढेणं गंगेया ! एवं वुच्चइ जाव सओ वेमाणिया चयंति, नो असओ वेमाणिया चयंति।
[५१-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि नैरयिक सत् नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, असत् नैरयिकों में नहीं। इसी प्रकार यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं ?
[५१-२ उ.] गांगेय! निश्चित ही पुरुषादानीय अर्हत् श्रीपार्श्वनाथ ने लोक को शाश्वत, अनादि और अनन्त कहा है इत्यादि, पंचम शतक के नौवें उद्देशक में कहे अनुसार जानना चाहिए यावत्-जो अवलोकन किया जाए, उसे लोक कहते हैं। इस कारण हे गांगेय ! ऐसा कहा जाता है कि यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं।।
विवेचन सत् ही उत्पन्न होने आदि का रहस्य–सत् अर्थात् —द्रव्यार्थतया विद्यमान नैरयिक आदि ही नैरयिक आदि में उत्पन्न होते हैं, सर्वथा असत् (अविद्यमान) द्रव्य तो कोई भी उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि वह तो गधे के सींग के समान असत् है। इन जीवों में सत्त्व (विद्यमानत्व या अस्तित्व) जीवद्रव्य की अपेक्षा से, अथवा नारक-पर्याय की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि भावी नारक-पर्याय की अपेक्षा से द्रव्यतः नारक ही नारकों में उत्पन्न होते हैं। अथवा यहाँ से मर कर नरक में जाते समय विग्रहगति में नारकायु का उदय हो जाने से वे जीव भावनारक हो कर ही नैरयिकों के उत्पन्न होते हैं।
सत् में ही उत्पन्न होने आदि का रहस्य- जो जीव नरक में उत्पन्न होते हैं, पहले से उत्पन्न हुए सत् नैरयिकों में समुत्पन्न होते हैं, असत् नैरयिकों में नहीं क्योंकि लोक शाश्वत होने से नारक आदि जीवों का सदैव सद्भाव रहता है। ... गांगेय सम्मतसिद्धान्त के द्वारा स्वकथन की पुष्टि-भगवान् महावीर ने लोक शाश्वत है' ऐसा पुरुषादानीय भगवान् पार्श्वनाथ ने भी फरमाया है, यह कह कर गांगेय–मान्य सिद्धान्त के द्वारा स्वकथन की पुष्टि की है।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४५५ २. वही. अ. वृत्ति, पत्र ४५५ ३. वही. अ. वृत्ति, पत्र ४५५