Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
५१६
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते। इसलिए हे गांगेय ! पूर्वोक्त रूप से कहा गया है।
५६. एवं जाव मणुस्सा। [५६] इसी प्रकार यावत् मनुष्य तक जानना चाहिए।
५७. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा।से तेणढेणं गंगेया ! एवं वुच्चइ सयं वेमाणिया जाव उववजंति, नो असयं जाव उववजंति। ___ [५७] जिस प्रकार असुरकुमारों के विषय में कहा, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में भी जानना चाहिए। इसी कारण हे गांगेय! मैं ऐसा कहता हूँ कि यावत् वैमानिक, वैमानिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते।
जीवों की नारक, देव आदि रूप में स्वयं उत्पत्ति के कारण-(१) कर्मोदयवश, (२) कर्मों की गुरुता से, (३) कर्मों के भारीपन से, (४) कर्मों के गुरुत्व और भारीपान की अतिप्रकर्षावस्था से, (५) कर्मों के उदय से, (६) विपाक (यानी कर्मों के फलभोग) से, अथवा यथाबद्ध रसानुभूति से, फलविपाक से-रस की प्रकर्षता से।
उपर्युक्त शब्दों में किञ्चित् अर्थभेद है अथवा ये शब्द एकार्थक हैं।अर्थ के प्रकर्ष को बतलाने के लिए अनेक शब्दों का प्रयोग किया गया है। भगवान् के सर्वज्ञत्व पर श्रद्धा और पंचमहाव्रत धर्म-स्वीकार
५८. तप्पभिई णं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीरं पच्चभिजाणइ सव्वण्णू सव्वदरिसी।
[५८] तब से अर्थात् इन प्रश्नोत्तरों के समय से गांगेय अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के रूप में पहचाना।
५९. तए णं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी इच्छामि णं भंते ! तुब्भं अंतियं चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइय एवं जहा कालासवेसियपुत्तो (स. १ उ. ९ सु. २३-२४) तहेव भाणियव्वं जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति.।
॥गंगेयो समत्तो॥९-३२॥ १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४५५ २. वही, अ. वृत्ति, पत्र ४५५ ३. भगवतीसूत्र श. १, उ. ९, सू. २३-२४ में देखिये।