Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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नवम शतक : उद्देशक-३१
.४५५ भिन्न) करने से वह सारा का सारा वृक्ष क्षीण हो जाता है, उसी प्रकार मोहनीयकर्म का क्षय होने पर शेष घातिकर्मों का भी क्षय हो जाता है। अर्थात्-मोहनीयकर्म की शेष प्रकृतियों का क्षय करके साधक ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीनों कर्मों की सभी प्रकृतियों का क्षय कर देता है। ___ केवलज्ञान के विशेषणों का भावार्थ केवलज्ञान विषय की अनन्ता के कारण अनन्त है। केवलज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई ज्ञान नहीं है, इसलिए वह अनुत्तर (सर्वोत्तम) ज्ञान है। वह दीवार भींत आदि के व्यवधान के कारण प्रतिहत (स्खलित) नहीं होता-किसी भी प्रकार की कोई भी रुकावट उसे रोक नहीं सकती, इसलिए वह 'निर्व्याघात' है। सम्पूर्ण आवरणों के क्षय होने पर उत्पन्न होने से वह 'निरावरण' है। सकल पदार्थों का ग्राहक होने से वह 'कृत्स्न' होता है। अपने सम्पूर्ण अंशों से युक्त उत्पन्न होने से वह 'प्रतिपूर्ण होता है। केवलदर्शन के लिए भी यही विशेषण समझ लेने चाहिए। असोच्चा केवली द्वारा उपदेश-प्रव्रज्या सिद्धि आदि के सम्बन्ध में
२७. से णं भंते ! केवलिपण्णत्तं धम्मं आघवेज्जा वा पण्णवेज्जा वा परूवेज्जा वा ? नो इणढे समठे, णऽन्नत्थ एगणाएण वा एगवागरणेण वा।
[२७ प्र.] भगवन् ! वे असोच्चा केवली केवंलिप्ररूपित धर्म कहते हैं, बतलाते हैं अथवा प्ररूपणा करते हैं ?
[२७ उ.] गौतम! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। वे (केवल) एक ज्ञात (उदाहरण) के अथवा एक (व्याकरण) प्रश्न के उत्तर के सिवाय अन्य (धर्म का) उपदेश नहीं करते।
२८. से णं भंते ! पव्वावेज वा मुंडावेज वा? णो इणढे समढे, उवदेसं पुण करेज्जा।
[२८ प्र.] भगवन् ! वे असोच्चा केवली (किसी को) प्रव्रजित करते हैं, या मुण्डित करते हैं ? __ [२८ उ.] गौतम! वह अर्थ समर्थ नहीं। किन्तु उपदेश करते (कहते) हैं (कि तुम अमुक के पास प्रव्रज्या ग्रहण करो।)
२९. से णं भंते ! सिज्झति जाव अंतं करेति ? हंता, सिज्झति जाव अंतं करेति। [२९ प्र.] भगवन् ! (क्या असोच्चा केवली) सिद्ध होते हैं, यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं ? [२९ उ.] हाँ गौतम ! वे सिद्ध होते हैं, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं।
३०. से णं भंते ! किं उड्ढे होज्जा, अहो होज्जा, तिरियं होज्जा ? १. भगवतीसूत्र. भा. ४ (पं. घेवरचन्दजी), पृ. १६०४