Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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नवम शतक : उद्देशक- ३२
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गंगेया ! चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा—भवणवासिदेवपवेसणए जाव वेमाणियदेवपवेसणए । [४२ प्र.] भगवन्! देव-प्रवेशनक कितने प्रकार का कहा गया है ?
[४२ उ.] गांगेय ! वह चार प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार — (१) भवनवासीदेव-प्रवेशनक, (२) वाणव्यन्तरदेव-प्रवेशनक, (३) ज्योतिष्कदेव - प्रवेशनक और (४) वैमानिकदेव - प्रवेशनक ।
४३. एगे भंते ! देवे देवपवेसणए णं पविसमाणे किं भवणवासीसु होज्जा वाणमंतर - जोइसियवेमाणिएसु होज्जा ?
गंगेया! भवणवासीसु वा होज्जा वाणमंतर - जोइसिय- वेमाणिएसु वा होज्जा ।
[४३ प्र.] भगवन्! एक देव, देव- प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करता हुआ क्या भवनवासी देवों में होता है, वाणव्यन्तर देवों में होता है, ज्योतिष्क देवों में होता है, अथवा वैमानिक देवों में होता है ?
[४३ उ.] गांगेय ! एक देव, देव-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करता हुअ भवनवासी देवों में होता है, अथवा वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क अथवा वैमानिक देवों में होता है।
४४. दो भंते ! देवा देवपवेसणए० पुच्छा ।
गंगेया ! भवणवासीसु वा होज्झा, वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिएसु वा होज्जा ।
अहवा एगे भवणवासीसु, एगे वाणमंतरेसु होज्जा । एवं जहा तिरिक्खजोणियपवेसणए तहा देवपवेसण वि भाणियव्वे जाव असंखिज्ज त्ति ।
[४४ प्र.] भगवन्! दो देव, देव-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या भवनवासी देवों में, इत्यादि (पूर्ववत्) प्रश्न ।
[४४ उं.] गांगेय ! वे भवनवासी देवों में होते हैं, अथवा वाणव्यन्तर देवों में होते हैं, या ज्योतिष्क देवों में होते हैं, अथवा वैमानिक देवों में होते हैं। अथवा एक भवनवासी देवों में होता है, और एक वाणव्यन्तर देवों में होता है। जिस प्रकार तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक कहा, उसी प्रकार देव- प्रवेशनक भी असंख्यात देवप्रवेशनक तक कहना चाहिए।
विवेचन देव - प्रवेशनक - प्ररूपणा — देव - प्रवेशनक़ के चार प्रकार कहे गए हैं, जो आगमों में प्रसिद्ध हैं। एक देव या दो देव भवनपतियों में, वाणव्यन्तरदेवों में, ज्योतिष्कदेवों में या वैमानिकदेवों में से किन्हीं में उत्पन्न हो सकते हैं। द्विकसंयोगी भंगों की संख्या तिर्यञ्चयोनिक जीवों की तरह ही समझनी चाहिए। देवों की संख्या ४ ही होती है, यह विशेष है।
तीन से लेकर असंख्यात तक के प्रवेशनक-भंग — देवों के प्रवेशनक-भंग ३ से असंख्यात तक तिर्यंचों के प्रवेशनक-भंग के समान समझने चाहिए।'
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. ४४५