Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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नवम शतक : उद्देशक-३१
४४७ करता है और कोई उपार्जन नहीं करता है।७। कोई जीव यावत् मनः पर्यवज्ञान का उपार्जन करता है और कोई नहीं करता है। ८-९-१०। कोई जीव केवलज्ञान का उपार्जन करता है और कोई नहीं करता है ॥ ११॥
[२] से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ असोच्चा णं तं चेव जाव अत्थेगइए केवलनाणं नो उप्पाडेज्जा?
गोयमा ! जस्स णं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ १, जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नोकडे भवइ २, जस्सणं धम्मंतराइयाणं कम्माणंखओवसमे नो कडे भवइ ३, एवं चरित्तावरणिज्जाणं ४, जयणावरणिज्जाणं ५, अज्झवसाणावरणिज्जाणं ६, आभिणि बोहियनाणावरणिज्जाणं ७, जाव मणपज्जवनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ ८-९-१०, जस्स णं केवलनाणावरणिज्जाणं जाव खए नो कडे भवइ ११, से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव' केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेज्जा सवणयाए, केवलं बोहिं नो बुझेज्जा जाव केवलनाणं नो उप्पाडेजा। जस्स णं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवति १, जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ २, जस्स णं धम्मंतराइयाणं ३, एवं जाव जस्स णं केवलनाणावरणिज्जाणं कम्मार्ण खए कडे भवइ ११, से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए १, केवलं बोहिं बुज्झेज्जा २, जाव केवलणाणं उप्पाडेज्जा११।
[१३-२ प्र.] भगवन् ! इस (पूर्वोक्त) कथन का क्या कारण है कि कोई जीव केवलिप्ररूपित धर्मश्रमणलाभ करता है, यावत् केवलज्ञान का उपार्जन करता है और कोई यावत् केवलज्ञान का नहीं करता है ?
[१३-२ उ.] गौतम ! (१) जिस जीव ने ज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (२) जिस जीव ने दर्शनावरणीय (दर्शनमोहनीय) कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (३) धर्मान्तरायिककर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (४) चारित्रावरणीयकर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (५) यतनावरणीयकर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (६) अध्यवसानावरणीयकर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (७) आभिनिबोधिकज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (८ से १०) इसी प्रकार श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय और मन:पर्यवज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया तथा (११) केवलज्ञानावरणीयकर्म का क्षय नहीं किया, वे जीव केवली आदि से धर्मश्रवण किये बिना धर्म-श्रवणलाभ नहीं पाते, शुद्धबोधिकलाभ का अनुभव नहीं करते, यावत् केवलज्ञान को उत्पन्न नहीं कर पाते। किन्तु (१) जिस जीव ने ज्ञानावरणीयकर्मों का क्षयोपशम किया है, (२) जिसने दर्शनावरणीयकर्मों का क्षयोपशम किया है, (३) जिसने धर्मान्तरायिककर्मों का क्षयोपशम किया है, (४-११) यावत् जिसने केवलज्ञानावरणीयकर्मों का क्षय किया है, वह केवली आदि से धर्मश्रवण किये बिना ही केवलप्ररूपित धर्म-श्रवण लाभ प्राप्त करता है, शुद्ध बोधिलाभ का अनुभव करता है, यावत् केवलज्ञान को उपार्जित कर लेता है।
१. 'जाव' शब्द से यहाँ 'श्रुतज्ञान' और 'अवधिज्ञान' पद जोड़ना चाहिए।