Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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नवम शतक : उद्देशक-३१
४३९ को नहीं भी होता?
[२-२ उ.] गौतम! जिस जीव ने ज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशम किया हुआ है, उसको केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका में से किसी से सुने बिना ही केवलि-प्ररूपित धर्म श्रवण का लाभ होता है और जिस जीव ने ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया हुआ है, उसे केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवलि-प्ररूपित धर्म-श्रवण का लाभ नहीं होता। हे गौतम ! इसी कारण ऐसा कहा गया है कि यावत् किसी को धर्म-श्रवण का लाभ होता है और किसी को नहीं होता।
विवेचन केवली इत्यादि शब्दों का भावार्थ-केवलिस्स-जिन अथवा तीर्थंकर । केवलिश्रावक—जिसने केवली भगवान् से स्वयमेव पूछा है, अथवा उनके वचन सुने हैं, वह । केवलि-उपासककेवली की उपासना करने वाले अथवा केवली द्वारा दूसरे को कहे गए वचन को सुनकर बना हुआ उपासक, भक्त। केवली-पाक्षिक-अर्थात् स्वयम्बुद्धकेवली।'
असोच्चा धम्मं लभेज्जा सवणयाए—(उपर्युक्त दस में से किसी के पास से) धर्मफलादि के प्रतिपादक वचन को सुने बिना ही अर्थात्-स्वाभाविक धर्मानुराग-वश होकर ही (केवलीप्ररूपित) श्रुतचारित्ररूप धर्म सुन पाता है, अर्थात्-श्रवणरूप से धर्म-लाभ प्राप्त करता है। आशय यह है कि वह धर्म का बोध पाता है।
नाणावरणिज्जाणं.....खओवसमे–ज्ञानावरणीयकर्म के मतिज्ञानावरणीय आदि भेदों के कारण तथा मतिज्ञानावरण के भी अवग्रहादि अनेक भेद होने से यहाँ बहुवचन का प्रयोग किया गया है। क्षयोपशम शब्द का प्रयोग करने के कारण यहाँ मतिज्ञानावरणीयादि चार ज्ञानावरणीयकर्म ही ग्राह्य हैं, केवलज्ञानावरण नहीं, क्योंकि उसका क्षयोपशम नहीं, क्षय ही होता है। पर्वतीय नदी में लुढकते-लुढकते गोल बने हुए पाषाणखण्ड की तरह किसी-किसी के स्वाभाविकरूप से ज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशम हो जाता है। ऐसी स्थिति में इन दस में से किसी से बिना सुने ही धर्मश्रवण प्राप्त कर लेता है। धर्मश्रवणलाभ में ज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशम अन्तरंग कारण है। केवली आदि से शुद्धबोधि का लाभालाभ -
३. [१] असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं बोहिं बुझेज्जा?
गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव अत्थेगइए केवलं बोहिं बुझेज्जा, अत्थेगइए केवलं बोहिं णो बुझेज्जा। १. भगवती. आ. वृत्ति, पत्र ४३२ २. वही, पत्र ४३२ ३. वही, पत्र ४३२