Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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नवम शतक : उद्देशक-३१
४४३ गोयमा ! जस्स णंजयणावरणिज्जाणं कम्माणंखओवसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, जस्स णं जयणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव नो संजमेज्जा, से तेणढेणं गोयमा ! जाव अत्थगइए नो संजमेज्जा।
[६-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि यावत् कोई जीव शुद्ध संयम द्वारा संयमयतना करता है और कोई जीव नहीं करता है ?
[६-२ उ.] गौतम! जिस जीव ने यतनावरणीयकर्म का क्षयोपशम किया हुआ है, वह केवली यावत् केवलि-पाक्षिक-उपासिका से सुने बिना ही शुद्ध संयम द्वारा संयम-यतना करता है, किन्तु जिसने यतनावरणीयकर्म का क्षयोपशम नहीं किया है, वह केवली आदि से सुने बिना यावत् शुद्ध संयम द्वारा संयम-यतना नहीं करता। इसलिए हे गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से कहा गया है कि यावत् कोई यतना नहीं करता। __विवेचन केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा-शुद्ध संयम अर्थात् —चारित्र ग्रहण अथवा पालन करके संयम-यतना करता है—अर्थात् संयम में लगने वाले अतिचार का परिहार करने के लिए यतनाविशेष करता है। जयणावरणिज्जाणं कम्माणं.–यतनावरणीयकर्म से चारित्रविशेषविषयक वीर्यान्तरायरूप कर्म समझना चाहिए। केवली आदि से शुद्ध संवर का आचरण-अनाचरण
७.[१] असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स.वा जाव उवासियाए वा केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा? ___ गोयमा !असोच्चा णं केवलिस्स जाव अत्थेगइए केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, अत्थेगइए केवलेणं जाव नो संवरेज्जा।
[७-१ प्र.] भगवन् ! केवली.यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से धर्म-श्रवण किये बिना ही क्या कोई जीव शुद्ध संवर द्वारा संवृत होता है ? ।
[७-१ उ.] गौतम! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना ही कोई जीव शुद्ध संवर से संवृत होता है और कोई जीव शुद्ध संवर से संवृत नहीं होता है।
[२] से केणढेणं जाव नो संवरेज्जा?
गोयमा ! जस्स णं अज्झवसाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, जस्सणं अज्झवसाणावरणिज्जाणं कम्माणंखओवसमे णो कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव नो संवरेज्जा, से तेणढेणं जाव नो संवरेज्जा ।
[७-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से (ऐसा कहा जाता है कि कोई जीव केवली आदि से सुने बिना ही १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४३३