Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
४४०
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र . [३-१ प्र.] भगवन् ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना ही क्या कोई जीव शुद्धबोधि (सम्यग्दर्शन) प्राप्त कर लेता है ?
[३-१ उ.] गौतम! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना ही कई जीव शुद्धबोधि प्राप्त कर लेते हैं और कई जीव प्राप्त नहीं कर पाते हैं।
[२] से केणद्वेणं भंते ! जाव नो बुझेज्जा?
गोयमा ! जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलं बोहिं बुज्झेज्जा, जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलं बोहिं णो बुझेज्जा, से तेणढेणं जाव णो बुझेजा।
[३-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा है कि यावत् शुद्धबोधि प्राप्त नहीं कर पाता?
[३-२ उ.] हे गौतम ! जिस जीव ने दर्शनावरणीय (दर्शन-मोहनीय) कर्म का क्षयोपशम किया है, वह जीव केवली यावत् केवलि-पाक्षिक उपासिका से सुने बिना ही शुद्धबोधि प्राप्त कर लेता है, किन्तु जिस जीव ने दर्शनावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं किया है, उस जीव को केवली यावत् केबली-पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना शुद्धबोधि का लाभ नहीं होता। इसी कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि यावत् किसी को सुने बिना शुद्धबोधिलाभ नहीं होता।
विवेचन-शुद्धबोधिलाभ सम्बन्धी प्रश्नोत्तर–प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि केवली आदि दस साधकों से धर्म सुने बिना ही शुद्धबोधिलाभ उसी को होता है जिसने दर्शन-मोहनीय कर्म का क्षयोपशम किया हो, जिसने दर्शनमोहनीय का क्षयोपशम नहीं किया, उसे शुद्धबोधिलाभ नहीं होता।
कतिपय शब्दों के भावार्थ : केवलं बोहिं बुझेजा—केवल-शुद्धबोधि-शुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता—अनुभव करता है। दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं-यहाँ दर्शनावरणीय' से दर्शन-मोहनीयकर्म का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि बोधि, सम्यग्दर्शन का पर्यायवाची शब्द है। अतः सम्यग्दर्शन (बोधि) का लाभ दर्शनमोहनीयकर्म क्षयोपशमजन्य है। केवली आदि से शुद्ध अनगारिता का ग्रहण अग्रहण ___४.[१] असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासयाए वा केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा?
गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगइए केवलं मुंडे भवित्ता १. भगवतीसूत्र. अ. वृत्ति का निष्कर्ष, पत्र ४३२ २. वही, अ. वृत्ति, पत्र ४३२