Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [७६-१ प्र.] भगवन्! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकरूप में रहा हुआ जीव, (वहाँ से मर कर) रत्नप्रभापृथ्वी के सिवाय अन्य स्थानों में उत्पन्न हो और (वहाँ से मर कर) पुनः रत्नप्रभापृथ्वी में नैरयिकरूप से उत्पन्न हो तो उस रत्नप्रभारयिक-वैक्रियशरीरप्रयोगबंध का अन्तर कितने काल का होता है ?
[७६-१ उ.] गौतम! (ऐसे जीव के वैक्रियशरीरप्रयोगबंध) सर्वबंध का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष का और उत्कृष्ट अनन्तकाल-वनस्पतिकाल का होता है। देशबंध का अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्तकाल-वनस्पतिकाल का होता है।
[२] एवं जाव अहेसत्तमाए, नवरं जा जस्स ठिती जहनिया सा सव्वबंधंतरे जहन्नेणं अंतोमुहुत्तमब्भहिया कायव्वा, सेसं तं चेव।
[७६-२] इसी प्रकार अध:सप्तम नरकपृथ्वी तक जानना चाहिए। विशेष इतना है कि सर्वबंध का जघन्य अन्तर जिस नैरयिक की जितनी जघन्य (आयु-) स्थिति हो, उससे अन्तर्मुहूर्त अधिक जानना चाहिए। शेष सर्वकथन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए।
७७. पंचिंदियतिरिक्खजोणिय-मणुस्साणं जहा वाउक्काइयाणं।
[७७] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों और मनुष्यों के सर्वबंध का अन्तर वायुकायिक के समान जानना चाहिए।
७८.असुरकुमार-नागकुमार जाव सहस्सारदेवाणं एएसिंजहा रयणप्पभागाणं, नवरं सव्वबंधंतरे जस्स जा ठिती जहनिया सा अंतोमुहुत्तमब्भहिया कायव्वा, सेसं तं चेव। .
[७८] इसी प्रकार असुरकुमार, नागकुमार से सहस्रार देवों तक के वैक्रियशरीरप्रयोगबंध का अन्तर रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिकों के समान जानना चाहिए। विशेष इतना है कि जिसकी जो जघन्य (आयु-) स्थिति हो, उसके सर्वबंध का अन्तर, उससे अन्तर्मुहूर्त अधिक जानना चाहिए। शेष सारा कथन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए।
७९. जीवस्स णं भंते ! आणयदेवत्ते नोआणय. पुच्छा।
गोयमा! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं अट्ठारससागरोवमाई वासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालं, वणस्सइकालो। देसबंधंतरं जहन्नेणं वासपुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, वणस्सइकालो। एवं जाव अच्चुए, नवरं जस्स जा ठिती सा सव्वबंधंतरे जहन्नेणं वासपुहत्तमब्भहिया कायव्वा, सेसं तं चेव।
[७९ प्र.] भगवन् ! आनतदेवलोक में देवरूप से उत्पन्न कोई देव, (वहाँ से च्यव कर) आनतदेवलोक के सिवाय दूसरे जीवों में उत्पन्न हो जाए, (फिर वहाँ से मर कर) पुनः आनतदेवलोक में देवरूप से उत्पन्न हो, तो उस आनतदेव के वैक्रियशरीरप्रयोगबंध का अन्तर कितने काल का होता है ?
[७९ उ.] गौतम ! उसके सर्वबंध का अन्तर जघन्य वर्ष-पृथक्त्व अधिक अठारह सागरोपम का और