Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अष्टम शतक : उद्देशक-१०
४२५ [५९ उ.] गौतम ! जीव पुद्गली भी है और पुद्गल भी। [२] से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ 'जीवे पोग्गली वि पोग्गले वि' ?
गोयमा ! से जहानामए छत्तेणं छत्ती, दंडेणं दंडी, घडेणं घडी, पडेणं पडी, करेणं करी एवामेक
गोयमा ! जीवे विसोइंदिय-चक्खिंदिय-घाणिंदिय-जिभिंदिय-फासिंदियाई, पडुच्च पोग्गली, जीवं पडुच्च पोग्गले, से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ 'जीवे पोग्गली वि पोग्गले वि'। _[५९-२ प्र.] भगवन्! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि जीव पुद्गली भी है और पुद्गल भी है।
[५९-२ उ.] गौतम! जैसे किसी पुरुष के पास छत्र हो तो उसे छत्री, दण्ड हो तो दण्डी, घट होने से घटी, पट होने से पटी और कर होने से करी कहा जाता है, इसी तरह हे गोतम! जीव श्रोत्रेन्द्रिय-चक्षुरिन्द्रियघ्राणेन्द्रिय-जिह्वेन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रिय (रूप पुद्गल वाला होने से) की अपेक्षा पुद्गली कहलाता है तथा स्वयं जीव की अपेक्षा पुद्गल कहलाता है। इस कारण से हे गौतम ! मैं कहता हूँ कि जीव पुद्गली भी है और पुद्गल भी
६०.[१] नेरइए णं भंते ! किं पोग्गली.? एवं चेव ।
[६०-१ प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव पुद्गली है, अथवा पुद्गल है ? __ [६०-१ उ.] गौतम! उपर्युक्त सूत्रानुसार यहाँ भी कथन करना चाहिए। अर्थात् पुद्गली और पुद्गल दोनों है।
[२] एवं जाव वेमाणिए। नवरं जस्स जइ इंदियाइं तस्स तइ वि भाणियव्वाई।
[६०-२] इसी प्रकार वैमानिक तक कहना चाहिए, किन्तु जिस जीव के जितनी इन्द्रियां हों, उसके उतनी इन्द्रियां कहनी चाहिए।
६१.[१] सिद्धे णं भंते ! किं पोग्गली, पोग्गले ? गोयमा ! नो पोग्गली, पोग्गले। [६१-१ प्र.] भगवन् ! सिद्धजीव पुद्गली हैं या पुद्गल हैं ? [६१-१ उ.] गौतम ! सिद्धजीव पुद्गली नहीं किन्तु पुद्गल हैं। [२] से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव पोग्गले ? गोयमा ! जीवं पडुच्च, से तेणढेणं गोयमा! एवं वुच्चइ सिद्धे नो पोग्गली, पोग्गले। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिः ।
॥अट्ठमसए : दसमो उद्देसओ समत्तो॥