Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
४३६
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ॥ नवम सए : तइयाइआ तीसंता उद्देसा समत्ता॥९.३-३०॥ [३] इस प्रकार अपनी-अपनी लम्बाई-चौड़ाई के अनुसार इन अट्ठाईस अन्तर्वीपों का वर्णन कहना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ एक-एक द्वीप के नाम से एक-एक उद्देशक कहना चाहिए। इस प्रकार सब मिलकर इन अट्ठाईस अन्तर्वीपों के अट्ठाईस उद्देशक होते हैं।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर भगवान् गौतम यावत् विचरण करते हैं।
विवेचन-अन्तद्वीप और वहाँ के निवासी मनुष्य ये द्वीप लवणसमुद्र के अन्दर होने से 'अन्तर्वीप' कहलाते हैं। इनके रहने वाले मनुष्य अन्तीपक कहलाते हैं। यों तो उत्तरवर्ती और दक्षिणवर्ती समस्त अन्तर्वीप छप्पन होते हैं, परन्तु 'दाहिणिल्लाण' कह कर दक्षिणदिशावर्ती अन्तीपों के सम्बन्ध में ही प्रश्न है और वे २८ हैं। प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार उनके नाम इस प्रकार हैं। १. एकोरुक, २. आभासिक, ३. लांगूलिक, ४. वैषाणिक, ५. हयकर्ण, ६. गजकर्ण, ७. गोकर्ण, ८. शष्कुलीकर्ण, ९. आदर्शमुख, १०. मेण्ढमुख, ११. अयोमुख, १२. गोमुख, १३. अश्वमुख, १४. हस्तिमुख, १५. सिंहमुख, १६. व्याघ्रमुख, १७. अश्वकर्ण, १८. सिंहकर्ण, १९. अकर्ण, २०. कर्णप्रावरण, २१. उल्कामुख, २२. मेघमुख, २३. विद्युन्मुख, २४. विद्युद्दन्त, २५. घनदन्त, २६. लष्टदन्त, २७. गूढदन्त और २८. शुद्धदन्त द्वीप। इन्हीं अन्तर्वीपों के नाम पर इनके रहने वाले मनुष्य भी इसी नाम वाले कहलाते हैं तथा एकोरुक आदि २८ अन्तर्वीपों में से प्रत्येक अन्तर्वीप के नाम से एकएक उद्देशक है।
जीवाभिगमसूत्र का अतिदेश–'जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत से दक्षिण में इतना मूल में कह कर आगे जीवाभिगमसूत्र का अतिदेश किया गया है, कई प्रतियों में— "चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स........ सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, दोण्ह वि पमाणं वण्णाओ य, एवं एएणं कमेणं," इत्यादि जो पाठ मिलता है, वह भगवतीसूत्र का मूलपाठ नहीं है, जीवाभिगमसूत्र का है। इसी कारण हमने कोष्ठक में उसका अर्थ दे दिया है। यहाँ इतना ही मूलपाठ स्वीकृत किया है—"एवं जहा जीवाभिगमे जाव सुद्धदंतदीवे.....।" जीवाभिगम के पाठ में वेदिका, वनखण्ड, कल्पवृक्ष, मनुष्य-मनुष्यणी का वर्णन किया गया है।
__ अन्तीपक मनुष्यों का आहार-विहार आदि-अन्तर्दीपक मनुष्यों में आहारसंज्ञा एक दिन के अन्तर से उत्पन्न होती है। वे पृथ्वीरस, पुष्प और फल का आहार करते हैं। वहाँ की पृथ्वी का स्वाद खांड जैसा होता है । वृक्ष ही उनके घर होते हैं। वहाँ ईंट-चूने आदि के मकान नहीं होते। उन मनुष्यों की स्थिति पल्योपम
१. (क) भगवती. (प. घेवरचन्दजी) भा. ४, पृ. १५७७
(ख) भगवती. वृत्ति, पत्र ४२८
(ग) पण्णवणासुत्तं पद १, भा. १, (महावीर विद्यालय) सू. १५, पृ. ५५ २. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं, मूलपाठ टिप्पण (म.वि.) भा. १, पृ. ४०८
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४२८