Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अष्टम शतक : उद्देशक-१०
४०७ चलता है तथा अंधा और पंगु दोनों मिल कर ही अभीष्ट नगर में प्रविष्ट हो सकते हैं। ये दोनों दृष्टान्त दे कर वृत्तिकार श्रुत और शील दोनों के एक साथ समायोग को ही अभीष्ट फलदायक मानते हैं।'
श्रुत-शील की चतुर्भंगी का आशय-(१) प्रथम भंग का स्वामी शीलसम्पन्न है, श्रुतसम्पन्न नहीं, उसका आशय यह है कि वह भावतः शास्त्रज्ञान प्राप्त किया हुआ या तत्त्वों का विशेष ज्ञाता नहीं है, अतः स्वबुद्धि से ही पापों से निवृत्त है। मूलपाठ में उक्त 'अविण्णायधम्मे' पद से यह स्पष्ट होता है, कि जिसने धर्म को विशेष रूप से नहीं जाना, वह (अविज्ञातधर्मा) साधक मोक्ष-मार्ग की देशतः—अंशत: आराधना करने वाला है। अर्थात्-जो चारित्र की आराधना करता है, किन्तु विशेषरूप से ज्ञानवान् नहीं है (उससे ज्ञान की आराधना विशेषरूप से नहीं होती।) अथवा स्वयं अगीतार्थ है, इसलिए गीतार्थ के नेश्राय में रहकर तपश्चर्यारत रहता है। इस भंग का स्वामी मिथ्यादृष्टि नहीं, किन्तु सम्यग्दृष्टि है। (२) दूसरे भंग का स्वामी शीलसम्पन्न नहीं, किन्तु श्रुतसम्पन्न है, वह पापादि से अनिवृत्त है, किन्तु धर्म का विशेष ज्ञाता है। इसलिए उसे यहाँ देशविराधक कहा गया है, क्योंकि वह ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्न-त्रय जो मोक्षमार्ग है, उसमें से तृतीय भागरूप चारित्र की विराधना करता है, अर्थात्-प्राप्त हुए चारित्र का पालन नहीं करता अथवा चारित्र को प्राप्त नहीं करता । इस भंग का स्वामी अविरतिसम्यग्दृष्टि है, अथवा प्राप्त चारित्र का अपालक श्रुतसम्पन्नसाधक है। (३) तृतीय भंग का स्वामी शीलसम्पन्न भी है और श्रुतसम्पन्न भी है। वह उपरत है तथा धर्म का भी विशिष्ट ज्ञाता है। अतः वह सर्वाराधक है, क्योंकि वह सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय मोक्षमार्ग की सर्वथा आराधना करता है। (४) चतुर्थ भंग का स्वामी शील और श्रुत दोनों से रहित है। वह अनुपरत है और धर्म का विज्ञाता भी नहीं, क्योंकि श्रुत (सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन) से रहित पुरुष न तो विज्ञातधर्मा हो सकता है और न ही सम्यक्चारित्र की आराधना कर सकता है। इसलिए रत्नत्रय का विराधक होने से वह सर्वविराधक माना गया है।
१. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ४१७-४१८ (ख) क्रियैव फलदा पुंसां न ज्ञानं फलदं मतम्।
स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखिनो भवेत्॥१॥ विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता।
मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात्॥२॥ (ग) 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः।'
'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग:'-तत्वार्थसूत्र अ. १ सू. १ (घ) नाणं पयासयं, सोहओ तवो, संजमो य गुत्तिकरो।
तिण्हपि समाओगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ॥ (ङ) संयोगसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ।
अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥ २. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ४१८, (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ३, पृ. १५४१-१५४२