Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र का अन्तर नहीं होता। तैजसशरीर के अबंधक केवल सिद्धजीव ही होते हैं, शेष सभी संसारी जीव इसके देशबंधक हैं, इस दृष्टि से सबसे अल्प इसके अबंधक बतलाए गए हैं, उनसे अनन्तगुणे देशबंधक इसलिए बताए गए हैं, कि शेष समस्त संसारी जीव सिद्धजीवों से अनन्तगुणे हैं।' कार्मणशरीरप्रयोगबंध के भेद-प्रभेदों की अपेक्षा विभिन्न दृष्टियों से निरूपण
९७. कम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ?
गोयमा! अट्ठविहे पण्णत्ते, तं जहा—नाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे जाव अंतराइयकम्मासरीरप्पयोगबंधे।
[९७ प्र.] भगवन् ! कार्मणशरीरप्रयोगबंध कितने प्रकार का कहा गया है ?
[९७ उ.] गौतम! वह आठ प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है-ज्ञानावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगबंध, यावत् अन्तरायकार्मणशरीरप्रयोगबंध।
९८. णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं?
गोयमा ! नाणपडिणीययाए णाणणिण्हवणयाए णाणंतराएणं णाआणप्पदोसेणं णाणच्चासादणाए णाणविसंवादणाजोगेणं णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं णाणावरणिज्जकम्मा-सरीरप्पयोगबंधे।
[९८ प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगबंध किस कर्म के उदय से होता है ?
[९८ उ.] गौतम! ज्ञान की प्रत्यनीकता (विपरीतता या विरोध) करने से, ज्ञान का निह्नव (अपलाप) करने से, ज्ञान में अन्तराय देने से, ज्ञान से प्रद्वेष करने (ज्ञान के दोष निकालने) से, ज्ञान की अत्यन्त आशातना करने से, ज्ञान के अविसंवादन-योग से तथा ज्ञानावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगनामकर्म के उदय से ज्ञानावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगबंध होता है।
९९. दरिसणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ?
गोयमा! दंसणपडिणीययाए एवं जहा णाणावरणिज्जं, नवरं 'दंसण' नाम घेत्तव्वं जाव दंसणविसंवादणाजोगेणं दरिसणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं जाव प्पओगबंधे। .. [९९ प्र.] भगवन् ! दर्शनावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगबंध किस कर्म के उदय से होता है ?
[९९ उ.] गौतम! दर्शन की प्रत्यनीकता से, इत्यादि जिस प्रकार ज्ञानावरणीय-कार्मणशरीरप्रयोगबंध के कारण कहे हैं, उसी प्रकार दर्शनावरणीयकार्मणशरीरप्रयोगबंध के भी कारण जानने चाहिए। अन्तर इतना ही है कि यहां (ज्ञान के स्थान में) दर्शन शब्द तथा यावत् दर्शनविसंवादनयोग से तथा दर्शनावरणीयकार्मणशरीर
. भगवतीसूत्र. अ. वृत्ति, पत्रांक ४१०