Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अष्टम शतक : उद्देशक-२
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किन्नरसंठिए किंपुरिससंठिए महोरगसंठिते गंधव्वसंठिए उसभसठिए पसु-पसय-विहग-वानरणाणासंठाणसंठिते पण्णत्ते।
[२८ प्र.] भगवन् ! वह विभंगज्ञान किस प्रकार का कहा गया है ?
[२८ उ.] गौतम ! विभंगज्ञान अनेक प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-ग्राम-संस्थित (ग्राम के आकार का), नगरसंस्थित (नगराकार) यावत् सन्निवेशसंस्थित, द्वीपसंस्थित, समुद्रसंस्थित, वर्ष-संस्थित (भरतादि क्षेत्र के आकार का), वर्षधरसंस्थित (क्षेत्र की सीमा करने वाले पर्वतों के आकार का). सामान्य पर्वत-संस्थित, स्तूपसंस्थित, हयसंस्थित (अश्वाकार), गजसंस्थित, नरसंस्थित, किन्नरसंस्थित, किम्पुरुषसंस्थित, महोरगसंस्थित, गन्धर्वसंस्थित, वृषभसंस्थित (बैल के आकार का), पशु पशय (अर्थात् —दो खुरवाले जंगली चौपाये जानवर), विहग (पक्षी), और वानर के आकार वाला है। इस प्रकार विभंगज्ञान नाना संस्थानसंस्थित (आकारों से युक्त) कहा गया है।
विवेचन—ज्ञान और अज्ञान के स्वरूप तथा भेद-प्रभेद का निरूपण—प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. २२ से २८ तक) में ज्ञान और अज्ञान के स्वरूप तथा नन्दीसूत्र और राजप्रश्नीयसूत्र के अतिदेशपूर्वक दोनों के भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है।
पांच ज्ञानों का स्वरूप-(१)आभिनिबिोधिक-इन्द्रिय और मन की सहायता से योग्य देश में रहे हुए पदार्थ का अर्थाभिमुख (यथार्थ) निश्चित (संशयादि रहित) बोध (ज्ञान) आभिनिबोधिक है। इसका दूसरा नाम मतिज्ञान भी है। (२) श्रुतज्ञान-श्रुत अर्थात् श्रवण किये जाने वाले शब्द के द्वारा (वाच्यवाचक सम्बंध से) तत्सम्बद्ध अर्थ को इन्द्रिय और मन के निमित्त से ग्रहण कराने वाला भाव श्रुतकारणरूप बोध श्रुतज्ञान कहलाता है। अथवा इन्द्रिय और मन की सहायता से श्रुत-ग्रन्थानुसारी एवं मतिज्ञान के अनन्तर शब्द और अर्थ के पर्यालोचनपूर्वक होने वाला बोध श्रुतज्ञान है। (३)अवधिज्ञान–इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना मूर्तद्रव्यों को ही जानने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान अथवा नीचे-नीचे विस्तृत वस्तु का अवधान-परिच्छेद जिससे हो उसे अवधिज्ञान कहते हैं। (४) मनःपर्यवज्ञान-मनन किये जाते हुए मनोद्रव्यों के पर्याय
आकार विशेष को संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना प्रत्यक्ष जानना। (५) केवलज्ञान-केवल एक, मति आदि ज्ञानों से निरपेक्ष त्रिकाल-त्रिलोकवर्ती सर्वद्रव्य-पर्यायों का युगपत्, शुद्ध, सकल, असाधारण एवं अनन्त, हस्तमलकवत् प्रत्यक्षज्ञान।
आभिनिबोधिकज्ञान के चार प्रकारों का स्वरूप—(१) अवग्रह–इन्द्रिय और पदार्थ के योग्य देश में रहने पर दर्शन के बाद (विशेषरहित) सामान्य रूप से सर्वप्रथम होने वाला पदार्थ का ग्रहण (बोध) (२) ईहा—अवग्रह से जाने गए पदार्थ के विषय में संशय को दूर करते हुए उसके विशेष धर्म की विचारणा करना। (३) अवाय-ईहा से ज्ञात हुए पदार्थों में यही है, अन्य नहीं; इस प्रकार से अर्थ का निश्चय करना। (४)धारणा—अवाय से निश्चित अर्थ को स्मृति आदि के रूप में धारण कर लेना, ताकि उसकी विस्मृति न हो।